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चौपईप्रथम देव गुरु धर्म पिछाने । ता परतीत मिथ्या तन मार्ने । क गर कु देव कुधर्म निबार । मुमुर बचन नित वित्त संमारै ॥२॥
अंत
कुगुर तना धौगन धनंत, कहता कोई न जानै अन्त । मुगुर तनी संगति डारसी, बाप तरै और न तारसी ॥ ११६ ॥
दहाअटार दूषन रहत, देव सुगुर निरपन्ध ।
धरम दया पूर अपर, मति अविरोध गरंथ ॥ ११ ॥ इति श्री विवेक विलास संपूर्ण ।
लेखनकाल- श्री कासमा बाजार मध्ये लिखित प्राचार्य श्री कीर्तिः पंडे, बेलचंद पंडे लक्ष्मीचंद पटनार्थ संवत १५६५ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १ रचौ श्री स्तु ॥ प्रति-गुटकाकार-पत्र-५८ से ७६ । पंक्ति- १३ | अक्षर- १३, साइज-४४६
[अभय जैन ग्रंथालय । (५२) विशति स्थानक तपविधि-(गय) ज्ञानसागर रा० सं० १८२६ मि०व० १०, मकसुदा वाद् । आदि
श्रीमहतमानम्य गुरु चे ज्ञानसागरम् ।
विशते स्थानकस्याहं लिखामि विधिविस्तरम् ॥ "अथ पीस स्थानक तपका विधि विस्तार मेती लिख्यते, निहां प्रथम शुभ निर्दोषमुहूर्त दिवसे नंदीस्थापना पूर्वक सुपिहित गुरु के समीप विसति स्थानक तप विधि पूर्वक उबरें । एक भोली दो मासे जापत् छः मासे पूरी करें कदाचित् छ मासमध्ये पूरी न कर सकें तो वे भोली जाय फेर करणी पड़े।
अथ श्री भाषा कल्प सूत्र लिख्यते ।