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(५०) मदन युद्ध-रचयिता-धर्मदास । श्रादि
मुनिवर मकरध्वज, दडून मांडी दारि । रति कंत वली यत, उतहिं निवल ब्रह्मचारि ॥ दोऊ सूर सुभट दल, साजि चढ़े संग्राम । तप तेज सहस यत, उतहि महाभइ काम || मु०॥१॥ प्रथम जपू परमेष्टि, पंच पचमि गति पावू। चतुर घस जिन नाम, चित धरि चरण मनाऊं ॥ सारद गनि मनि गुण, गमीर गवरि सुत मंचो। सिद्धि मुमति दातार, वचन अमृत गुन बचों । गुरु गावत मुनि जन सकल, जिनको होइ सहाइ । मदन जुझ धर्मदास को, वरणतु महि पसा ॥ मु०॥२॥
पहिरइ सील सन्नाह, लंच अति आ जदीए । सीस परन धु धीव, खिमा करि षडग लीयद ॥ दसन जन वदन्न धजा, कोउ रस्थ उपरि सि सज्जे । सत सुमते स्वारथ मुहह, संजम गल गज्जे ॥ चेतन हा रथ .................... निसाथ। हाकि चलेउ वरत उवनि, गए मदन अवसान || ३२॥
इति मदन जुझ समान। प्रति-पत्र ४ । पं० १३ । अ० ३७.
[अभय जैन प्रन्थालय] (५१) विवेक विलास दोहरा । पद्य- ११७ । आदि
नपुं सरवदा सीस नै, जिनवर रिषम जिनंद । जीब अजीब दिखाइयो, नमैं इंद पर चंद ॥१॥