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अन्त
श्री विक्रम सै सतरसै, बीते सहुतालीम । तेरस दिनि वैशाख वदि, बार बखाणि जगीस ॥ ४ ॥ सुत श्री रूपसिंह के, उत्तम कुल ोमवाल । बुरुवा गोत्र प्रदीप सम, गनत बाल गुपाल ॥ ७ ॥ जिन गुरु सेवा में षडिंग, प्रथमज मोहनदास। तसे ताराचंद मी, तिलोकचंद प्रकास ॥ ७६ ॥ तृ तुथ कीनी प्रार्थना, पुर हिंसार मभार । नव तत्व माषा बध करो, सो लाम अपार ॥ ७७ ॥ तिनके वचन सुचित्त धरी, लक्ष्मीवल्लभ उवकाय । नव तत्व भाषा बंध कियो,जिन बच सुमुरुपसाय ।। ७८ ॥ श्री जिन कुशल सूरिश्वत, श्री खरतर गच्छराज । ताच परंपर में भये, सव वाचक सिरताज || ७६ ॥ क्षमकीर्ति जग में प्रसिद्ध, तह से खेमराज । तामे लक्ष्मीवल्लभ भया पाठक पदवी मास ॥ ८० ॥ पटधारी जिन स्तन को, श्री जिन चंद सरिद ।। कोनो ताके वाज में, नव तत्ल भाषा बंध ।। ८१ ॥ पटै गुण रूचि सं सुणे, जे प्रातम हित काज । तिनको मानष भव सफल, करणत है कविराज ॥ १२ ॥
लेखनकान-संक्त १७६० वर्षे चैत्र सुदी १३ दिने च० नेमिमूति लिखितं श्री पल्लिका नगरे।
प्रति-पत्र ७ । पंक्ति १६ । अक्षर । साइज-१०४४
विशेष-जैन धर्म में जीव', अजीव, पुण्य', पाप, पाश्रवसंवर', बंध', निर्जर और मोक्ष' ये नव तत्व माने जाते हैं। इनके भेद प्रभेर प्रादि का इसमें वर्णन है।
[अभय-जैन ग्रंथालय