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(२७) तत्व पचनिका । रचयिता- दलपतराय । श्रादि
प्रथम शिष्य गुरु दयालसी, पाणि संपुट जोरि के प्रश्न करत है - स्वामी शुद्ध वस्तु को कहा। पर अशुद्ध वस्तु को कहा । तदा गुरु प्राशाद होय उत्तर कहै है - शिष्ण जो वस्तु अपने ही गुन करके सहित है सो तो शुद्ध वस्तु धक जामैं और वस्तु की मिसाल मयो सो पशुय वस्तु । अन्त
ताके उदय श्रावे शुमाशुभ कर्म भूक्ते हैं। बाको हर्ष-शोक का नहीं । ता (ते ) समीति जीवों कर्म लगै नहीं, पूर्व कर्मको निरजरें, नवे कर्म बांधे नहीं । ऐसे कर्म सम्पूर्ण कारकै सिद्ध गति मैं बसे हैं।
इति तत्व वनिका श्रावक दलपतरायजी कृत तत्व बोध प्रकाश । ग्रंथ १०५ लेखनकाल-लि. प्रो. सुखलाल, अजमेर प्रति-पत्र २२ । पंक्ति - १५ । अक्षर - ३५ । विशेष- जैन धर्मानुसार सम्यक्त्व और १२ व्रतादि का वर्णन है।
[जिन चारित्र सूरि भण्डार] (२८) त्रैलोक्य दीपक । पद्य-७४३ । रचयिता-कुशल विजय । रचना
काल सम्बत् १८१२ आदि
श्री जिनवर चोवीस को, नमों वित्त धर भाव । गणधर गोतम स्वामी के, वन्दौ दोनों पाव ॥
अन्त
शुम गच्छ तपों में अधिक, पण्डित, कुशल विजय पन्यास ।
यह तीन लोक विचार दीपक, लिखी पु समास ।
कुछ भूल मन्द सबार उनतें, ओसवाल सितम्बरी । गुरु मगत समती दास लघु सत, कही मवानी की ॥
[जैसलमेर भण्डार]