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________________ (१३७) (२७) तत्व पचनिका । रचयिता- दलपतराय । श्रादि प्रथम शिष्य गुरु दयालसी, पाणि संपुट जोरि के प्रश्न करत है - स्वामी शुद्ध वस्तु को कहा। पर अशुद्ध वस्तु को कहा । तदा गुरु प्राशाद होय उत्तर कहै है - शिष्ण जो वस्तु अपने ही गुन करके सहित है सो तो शुद्ध वस्तु धक जामैं और वस्तु की मिसाल मयो सो पशुय वस्तु । अन्त ताके उदय श्रावे शुमाशुभ कर्म भूक्ते हैं। बाको हर्ष-शोक का नहीं । ता (ते ) समीति जीवों कर्म लगै नहीं, पूर्व कर्मको निरजरें, नवे कर्म बांधे नहीं । ऐसे कर्म सम्पूर्ण कारकै सिद्ध गति मैं बसे हैं। इति तत्व वनिका श्रावक दलपतरायजी कृत तत्व बोध प्रकाश । ग्रंथ १०५ लेखनकाल-लि. प्रो. सुखलाल, अजमेर प्रति-पत्र २२ । पंक्ति - १५ । अक्षर - ३५ । विशेष- जैन धर्मानुसार सम्यक्त्व और १२ व्रतादि का वर्णन है। [जिन चारित्र सूरि भण्डार] (२८) त्रैलोक्य दीपक । पद्य-७४३ । रचयिता-कुशल विजय । रचना काल सम्बत् १८१२ आदि श्री जिनवर चोवीस को, नमों वित्त धर भाव । गणधर गोतम स्वामी के, वन्दौ दोनों पाव ॥ अन्त शुम गच्छ तपों में अधिक, पण्डित, कुशल विजय पन्यास । यह तीन लोक विचार दीपक, लिखी पु समास । कुछ भूल मन्द सबार उनतें, ओसवाल सितम्बरी । गुरु मगत समती दास लघु सत, कही मवानी की ॥ [जैसलमेर भण्डार]
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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