________________
( १३० )
ताम परंपद मुनिवर इया, दिगंबर महिनाणि । कद कंदाचार्य गुरु मेरा, पाहुद कही कहाणी ॥ २ ॥ तो पर अप्पी बप्प, न जाएगो पर सुं पेम धणेरी ।
थो षद मोग विया नहि तूरत भय तव रोगी करो ॥ ३ ॥ वंत
हो बनिहारी चेत ( न ) केरी, जौं चेतन मन भावे । योड़ि अचेतन भूपड़ा श्रोणण सिवपुर जावै ॥ ४१ ॥ जोगी रासौ सीखहु श्रावक, दोष न कोई लेजो ।
जो जिनदास त्रिवधि विधि हि सि५ हं समरण कीज्यो ॥ ४२ ॥ इति श्री जोगी रासौ संपूर्ण ॥ प्रति:- कई है।
{ अभय जैन ग्रन्थालय ] (२२) ज्ञान गुटका । पद्य-१८५
आदि
अथ ग्यान गुट का विचार सवैया लिख्यते । भगति का अंग
दोहा अरिहंत सिद्ध समरूं सदा, श्राचार्य उवझाय । साधु सकल के चरन कू, वंद, सीस नमाय ॥ १ ॥ सासन नायक समरिये, भगवंत वीर जिणद । अलय विधन दुरे हरा, पापो परमानंद ॥ २ ॥
अन्त
वासी चंदन कप्पो यद्धर तौनी परे सब सहो ।
अपनी न कहो दुसरे को सहो जिचाहे जीहा रेहो ॥१०५ इति ज्ञान गुटका हितो उपदेश दूहा सम्बन्ध समाप्त ॥ लेखनकाल-२० वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध प्रति-पत्र-४, पंक्ति-१५, अक्षर-३६, साइज-१०|४५
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ]