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________________ पंचम भार मे श्राज जागैः ज्योति जिनराज, भव सिंधको जिहाज आणि के ट्यो ॥ २ ॥ दे० ॥ बगा। अदभत रूप, मोहनी छवि अनूप, धरम को साची भूप, प्रभजो जयौ । ग.है जिन हरषित नयण भारे निरखित, ग्य धन बरसत, इति उदयौ ॥ ३ ॥ ६ ॥ अंतराग धन्या सिरी जिनवर चौवीस मुग्वदाई। भाव मगति धरि निजमनि थिरकार, कीरति मन सुध गाई ॥१॥ जि. ॥ जाकै नाम कलपवष समवर, प्रणमति नव निधि पाई । चौवासे पद चतुर गाईश्रो, गम बंध चतुराई ॥२॥ जि. ।। श्री सोम गरिण भपसाउ पाइके, निरमल मति उर भानई ।। इति चोवीस तीर्भ कराणां पदानी ॥३॥ जि. लं. सं. १७६६ रा माघ वदी १० श्री मगेटे लि०पं. भुवन विशाल मुनिना। प्रति-पत्र ३, इसके बाद आनंदवर्द्धन की चौवीमी प्रारम्भ होती है। [अभय जैन ग्रन्थालय] ( १५ ) चौवीसी । पद-२५ । रचयिता- ज्ञानसार । रचनाकाल-मंवत् १८७५, मार्ग मु० १५ । बीकानेर । पादि राग भैरू-उठत प्रभात नाम जिनी की गाइये। ऋषभ जिणंदा, पाणंद कंद कंदा । याही ते चरण सेवै, कोट सुर इदा ॥ ० ॥।॥ मरु देवा नामिनंद, अनुभव चकोरचंद । श्राप रूप को सरूप, कोट उय दिगदा ॥ ऋ० ॥ २ ॥ शिव शक्ति न बाढू. चार न गोविंदा । मानसार भक्ति चाहूँ, मैं हूँ नेग बंदा ॥ ऋ• ॥ ३ ॥ प्रति [ अभय जैन ग्रन्थालय ]
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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