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गुन तिनको सूझत नहीं, प्रौगुन पकरे दौर । कही मलुक तिन नरन को,हरले नाही ठौर ॥ ६३ ।।
आके भ्यान सदा यहै, ताकी हो बल जान ।
कुब्जा पच्चीसी सनौ यह प्रन्थ को नाब ।। ६६ ।। गोपिन को उगहनो उद्धव प्रति-इसके बाद २६ पद और है जिनमें से अन्त का इस प्रकार है।
क्यों कर पाऊ' पार, इनके प्रेम समुद्र कौ।
अपनी मत अनुमार, को सूचिम यो सकल कवि ।। १ ।। इनि श्री मालूकचद्र कृते कुछजा पच्चीमी संपूर्ण श्रीस्तु।। लेखन काल-भवन १७८६ वर्षे मिनि फाल्गुन सुदी ४ बुधवार प्रति- १. गुटकाकार पत्र ८२ से १०३ । पंक्ति ११ । अक्षर- १५ माइज x ६
२. पत्र.४.पंक्ति- १६, अक्षर-४२, माइज-- १०॥४५
३. पत्र-- ३, पक्ति-- १८, अक्षर-- १४. विशेष- इम गुटके (१) में इस प्रति मे पहिले ऋतुओं के वर्णन में हिन्दी कवित है। स्थान- प्रति (१) अनृप संस्कृन पुस्तकालय।
प्रति (२) अभय जैन ग्रंथालय । इस प्रति मे " श्रीमान महाराज कुमर मलूकचन्द विरचिताय" कुब्जा पच्चीमी समाप्तम लिम्बा है। (१८) कौतुक पच्चीसी। पद्य २७ । रचयिता-काल, मंबन १७६१
पाति-- कामत दायक कल्पतरू, गनपति गुन को गेहु ।
कुमति अन्धेरे हरणक, दीपक सी बुधि देहु, ।१।। प्रारंभ--- मत रमा विपरीत रति, नामि कमल विधि देखि ।
नारायन दबंधन नगन, मदत केल विशेष ।।१।। अन्त -- मत से इगमति समैं; उत्तम माहा श्रसाद ।