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________________ जिनरंग माया जगत की, ज्यू अंजल को मार ॥ ३ ॥ जिनरंगसूर कही सही, गा खरतर मुख जोस । दूहा बंध बहुसरी, बाँचें चतुर समाय ॥७॥ इति श्री जिनरंगकृत। पत्र-२ [अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ] छत्तीसी ( ३ ) प्रात्म-प्रबोध छत्तीसी । पद्य ३६ । रचयिता-ज्ञानसार । आदि अब मंगल कथन ग दोहराश्री परमातम परम पद, रहे अनंत समाय । ताको ई वंदन करूं, हाथ जोर मिर नाय ॥ १ ॥ अन्त श्रावक भामह सौ करे, दोहादिक पट नीस । शान सार दधि'सार, लौ, ए बातम बतीस ॥३६॥ [अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर ] ( ४ ) उपदेश छत्तीसी । रचयिता-जिनहर्ष । सं०१७१३ । जिन स्तुति कथन इकतीसा जिन श्रादि सकल सरूप या प्रभुता अनूप भूप, धूप छाया माया है न चैन जगदीश सू । पुण्य है न पाप है न शीत है न ताप है, जाप के प्रज्ञा प्रगर्दै काम प्रतीस ज॥ शान को अंगज पंज मुख वृक्ष को निकज, अतिशय चौतीस या बच्चन पैतीस जू । सो जिनगज जिनहरम प्रथमि, उपदेश की छत्तीसी कहूँ सवाये छत्तीस ज् ॥ १ ॥ भई उपदेश की छत्तीसी परिपूर्ण, चतुर नर जे याको मभ्य रस पीजियौ । मेरी है अलप मति तो भी मैं किए कवित, कविता हूँ सौ हूं जिन अंध मानि लीजियौ । सरस द्वे हे वलाण जाऊ अबसर जाण, यह तीन याके भैया सबैया कहीलियौ । कहि जिनहर्ष संवत् गुरु मसि भक, कीनि है तु मुणत शाबास मोकू पीमियौ ॥ ३६॥ [अभय जैन प्रन्यासय, बीकानेर]
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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