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छन्द वासव सेस विरंच नपावै, मैं मूरख किण गानो । पूत हेत जिम हरिणी थावे, हरि सनमुख हित यांनो ॥ त्युमै जिणगण्य भक्ति तणे वस, पाव अक्षर बत्तीसी । अमर कहै कविजन मति हसीयो, मैं हूँ मंदमतीसी ॥ १ ॥
प्रखर बतीसी छंद वणाये, पढीयो नीकी धारणा । शाना बरणी रूप के कारण, यातम पर उपगारणा ।। अमर विजै विनवै संतनि सौं, यसुध जिहां सुध कीजौ ।
श्री जिण वाणि सुधा सुं अधिकी, मणत श्रवण भर पीजो ॥३०॥ इति श्री अखर बतीसी संपूर्ण । प्रति- पत्र १० की, जिसमें इसी कवि की स्यादवाद बतीसी, उपदेश यतीमी है। पं० १२, १०४०।
[अभय जैन ग्रन्थालय] ( ३ ) कका बत्तीसी लिख्यते-रचियता-मिवजी सं० १८७० पादि
प्रथम विंदायक सुभरिय, रिध सिधि दातार । मन वंछित की कामना, पूरै पूरन हार ॥ पूरे पूग्नहार, छन्द कुंटलिया माहि । कीजे मिवजी चित लाइ बनाऊ कका गिर थम । हंस चदी सरसती बिंदाय गुरु प्रमथ ।
अन्त:
बाद छा अांबेरि का, अब जैपुर के बीचि । जोबनेर में थापियो, कको मनकृ' खेचि ॥ कको मनकु बैंचि, हारिनाथ से ठीकी । जवालादेवी प्रताप, श्रोर रछप्त-सब ही को । कहै सिवजी चित लाय देखि, लीजो धरि बाहु । कुल श्रावग प्राचार जाति, सोगाणी श्राद् ॥