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नौट रस भेद कीया, मइ उदमावनीसी, यानें लगी संतन के, चित्त सुहावनी ॥ गैन पर भूचर के. नाम परिंद दे दे, भाव बनी यहु युक्ति, (कुल) विश्व समझावनी । याने मन नूप कैरि, विनय सुकवि याको, यथारय नाम धरथौ, अन्योक्ति पावनी ।। ६२ ॥
[स्थान-प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रंथालय ] (२) उपदेश बावनी ( कृष्ण बावनी )। रचयिता-किसन । रचनाकाल-संवत् १७६७ विजय दसमी। आदि
ॐकार अपर अपार अविकार अज अजरतु हे उदार, दादन हुस्न को । कुंजर ने कीट परत जग जंतु ताके, अंतर को जामी बहु नामी मामी मंत को । चिंता को हरन हार चिता को करनहार, पोषन भरन हार किसन अनंत को ।। श्रत कहे अंत दिन गांव को अनंत विन, ताके नंत अंतको भगेसी भगवंत को ॥ ॥
अन्त
मिरि सिधगज लोकां गछ सिग्नाज, थान तिनकी कृपा जू कविताई पाई पावन । संवत सतर सनस विजैदसमी की, अंथ की समापत मई है मन भावनी ।। माधवी सुनान मांकी जाई श्री रतनबाई, त जी देह ता परि रची है विगतावनी । मत कीनो मन लोनी नतर्हि पे रन दीनी, वाचक किमान कीनी उपटेम बावनी ॥ ६ ॥
लेखन काल-१६ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र-७ । पंक्ति-१३ । अन्तर-४२ । माईज-१०x४॥।
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ३ ) केशव बावनी । पद्य ५७ । रचयिता-केशवदाम । रचना कालसंवत १७३६ श्रावण शुक्ला ५ । आदि
ऊंकार सदासुख देवत ही नित, सेवत वाछित इलित पावै । बावन अक्षर माहि सिरोमणि, योग योगीसर ही इस ज्यावै ।