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ध्यानमें शानमें वेद पुराणमें, कीरति जाकी सबै मन भावे । केसवदास के दीजो दौलति, मावसौं साहिब के गुण गावै ॥ १ ॥
पावन अक्षर जोर करि भैया, गांउ पच्याख ही में मल पावै । सत्तर सोत छतीस को श्रावण, सुद पाषु भृगुवार कहावै । सुख सोमागनी को तिनको हुवै, बावन अक्षर जो गुण गावै ।
लावन्यरत्न गुरु सु पसाव सों, केशवदास सदा ( मुख ) पावै ॥ ५६ ॥ लेखन काल-१६ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र ५ । पंक्ति १५ । अक्षर ४ । साइज १०x४||
[ अभय जैन ग्रन्थालय ] ( ४ ) गूढा बावनी (निहाल वावनी) । पद्य-५४ । रचयिताज्ञानसार ।
रचना काल-संवत १८८१ मिगसर वदी १ । श्रादि
टोहा
चाँच श्रोध पर पार बग, ठाटो अंब नि डान । हिलत चलत नहि नभ उडत, कारण कौन निहाल ॥ ५ ॥
नित्रित ।
अन्त
मध्ये प्रवचन माय दुग, मचा प्राद' अंत । भिगसर वदि तेरस भई, गृढ बावनी कत ।। ५३ ।। खरतर भट्टारक गन, रत्नराज गणि शीस ।
श्रामह में दोधक रचे, ज्ञानसार मन हींस ।। ५४ ॥ यह गूढा बावनी पंडित वीरचंदजी के शिष्य निहालचंद को उद्देश्य करके कही गई है अतः इस का नाम निहाल बावनी रखा गया। प्रति-प्रतिलिपि
[ स्थान-अभय जैन ग्रन्थालय ]