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दूर करे चितको पमान, सोइ बन्यौ दीपक तम मंडल । सेही योगिन के मन मौन में, सोमित है हरदीप सिरमबल ॥
यह सिंगार की वामना, सतक दूसरे माहि । विनयलाम शुम बैन सौं, बरन्यौ विविध पनाहि ॥ १.२ ।। सुम मति कविना चित्त मे, हरख धरे यहु देखि । क्रमति दुरजन तिन्नको, हरष हरे यह पति ॥ १०३॥
३ पैराग्य शतकआदि
मानी नर मत्सर मरे, प्रभु दषित अहंकार ।
और प्रशान भरे बहुत, कौन सुभाषित सार ॥ १ ॥ है कछु नाहि असार संसार मैं, जो हित हेत भली मन हो को । सभ कर्म किये . .. "ल अद्रत, ताके विपाक भये दुखही की । पुन्य के जोर 4 पावतु है मुभ, भोग मंजोग विषय रस है। फो ।
यो दिम्य यार सहें विष तुल्य, विचार को यह बात सही की ॥ ॥ अन्त
पा ६१ के बाद का अन्तिम पत्र खो जाने से प्रति अपूर्ण रह गई है। लेखन काल-१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ६। पंक्ति २६ से ३० । अक्षर २ से १०० ।
[ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] ( ६ ) भर्तृहरि वैराग्य शतक वैराग्य वृन्द । रचियता-भगवानदास निरंजनी।
गणनायक गनेश को, वंदो सीम् नमा । बुद्धि सुध प्रकाश होड, विधन नाश सब जाह ॥ १ ॥ पुनि प्रनाम गुरु को करी, नासे विधन अपार । गुरु ईश्वर सम तुल्य है, से पुनि पापु विचार ॥ २ ॥
सोरठा
अन्य नाम प्रमान, "वैराग्य वृन्द" मो जानिये ।