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________________ ( ७८ ) दूर करे चितको पमान, सोइ बन्यौ दीपक तम मंडल । सेही योगिन के मन मौन में, सोमित है हरदीप सिरमबल ॥ यह सिंगार की वामना, सतक दूसरे माहि । विनयलाम शुम बैन सौं, बरन्यौ विविध पनाहि ॥ १.२ ।। सुम मति कविना चित्त मे, हरख धरे यहु देखि । क्रमति दुरजन तिन्नको, हरष हरे यह पति ॥ १०३॥ ३ पैराग्य शतकआदि मानी नर मत्सर मरे, प्रभु दषित अहंकार । और प्रशान भरे बहुत, कौन सुभाषित सार ॥ १ ॥ है कछु नाहि असार संसार मैं, जो हित हेत भली मन हो को । सभ कर्म किये . .. "ल अद्रत, ताके विपाक भये दुखही की । पुन्य के जोर 4 पावतु है मुभ, भोग मंजोग विषय रस है। फो । यो दिम्य यार सहें विष तुल्य, विचार को यह बात सही की ॥ ॥ अन्त पा ६१ के बाद का अन्तिम पत्र खो जाने से प्रति अपूर्ण रह गई है। लेखन काल-१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ६। पंक्ति २६ से ३० । अक्षर २ से १०० । [ स्थान-अभय जैन ग्रंथालय ] ( ६ ) भर्तृहरि वैराग्य शतक वैराग्य वृन्द । रचियता-भगवानदास निरंजनी। गणनायक गनेश को, वंदो सीम् नमा । बुद्धि सुध प्रकाश होड, विधन नाश सब जाह ॥ १ ॥ पुनि प्रनाम गुरु को करी, नासे विधन अपार । गुरु ईश्वर सम तुल्य है, से पुनि पापु विचार ॥ २ ॥ सोरठा अन्य नाम प्रमान, "वैराग्य वृन्द" मो जानिये ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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