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________________ माखों बुदि उनमान, मूल भूत्यहरि मासते ।। इति भृत्यहरि भणित वैराग सत मूल तत भसित वैराग्य "वृन्द" नाम भाषकोम खंडनो भगवानदास निरंजनी कथ्यते प्रथमो परिकरन । पद्य हि० ६२६ सं०२४ । ग्रन्थ में ५ प्रकाश है पत्र ३०, पं० ११ अ०४४) अन्त भूल भतृहरि शत रहै, ताको धरि मन पाश । ता परिभाषा नाम यह, "वैराग्य वृन्द" परकाश ॥ मल हानि कीन्ही नहीं, करि सुधाक विकास । बान बुद्धि भाषा लहै, परित सधी प्रकास ॥ [ स्वामी नरोत्तमदासजी मंप्रह, गुटका अनूप मम्फत लाइबरी ] ( ७ ) भाव शतक । रचयिता-मारंगधर दोहा १०६ । श्रादि नायक थातुर काम वम, यमन उधास्त वाम । मुग्धा मय नम्रित कियौं, करि सुजान किहि काम ॥ १ ॥ अर्थसप्त समर काग हो, पायो श्रानुर पंत । मन मुगधा बूझत कुचनि. सुबह कान बलवन्त ॥ ३ ॥ अन्त होइ अजान मुजान मुनि, रीझे राज समाज । सारंगधर मुनि भाषशन, मनहि खिलावत काज || १२४ ॥ जाकउ मनरप ते विरस, सरस करण को पास । सारंगधर ता तोष को, बिरचित विविध विलास || १२५ ॥ दुख गंच (ज) न रंजन हदय, भंजन नित चित ताप । सारंगधर सुनि भाषशत, विधि विचारनु पाप ॥ १२६ ॥ इति भावशतक हा समाप्त । लेखनकाल-संवत् १६७२ श्रावण यदि १० । पं० मोहन लिखितं । स्थान-मानमलजी कोठारी संग्रह । प्रतिलिपि अभय जैन ग्रंथालय ।
SR No.010790
Book TitleRajasthan me Hindi ke Hastlikhit Grantho ki Khoj Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherRajasthan Vishva Vidyapith
Publication Year1954
Total Pages301
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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