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________________ चौथा भव-धनसेठ [६५ - आया और उसे धीरज धरानेके लिए कहने लगा, "हे महासत्त्व ! (हे महागुणी, हे महाधीर, ) केवल स्त्रीके लिए आप इतने क्यों घबरा रहे हैं ? धीर पुरुप मौतके समय भी इतने नहीं घबराते हैं ।" (५२२-५२३) ललितांगने कहा, "हे बंधु ! तुम यह क्या कह रहे हो ? प्राणोंका विरह सहन हो सकता है; परंतु कांताका विरह नहीं सहा जा सकता। कहा है कि "एकैव ननु संसारे सारं सारंगलोचना । या विना नूनमीप्योप्यसाराः सर्वसंपदः ॥" इस संसारमें एक सारंगलोचना (हिरणके समान आँखों. वाली स्त्री) ही सार है। उसके विना ये सारी संपत्ति भी असार है। (५२४-५२५) उसकी ऐसी दुखभरी बातें सुनकर ईशानंद्रका वह सामानिक देव भी दुखी हुआ। फिर अवधिज्ञानका उपयोग कर उसने कहा, "हे महानुभाव ! आप दुःख न कीजिए। मैंने ज्ञानसे जाना है कि आपकी होनेवाली प्रिया कहाँ है ? इसलिए स्वस्थ होकर सुनिए । (५२६-५२७) "पृथ्वीपर धातकीखंडके पूर्व विदेह क्षेत्रमें नंदी नामका गाँव है । उसमें एक दरिद्र गृहस्थ रहता है । नागिल उसका नाम है। वह पेट भरनेके लिए भूतकी तरह सदा भ्रमता है, तो भी पेट नहीं भरता; भूखाही सोता है और भूखाही उठता है । दरिद्री को भूखकी तरह उसके मंदभाग्य-शिरोमणि नागश्री नामकी त्री है। खुजलीम फुसियोंकी तरह, उसके एक एक करके यह लड़. -
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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