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________________ ___६४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. पड़ता है वैसेही, आयु पूर्ण होनेसे, स्वयंप्रभा देवीका वहाँसे च्यवन हो गया-देवगतिसे किसी दूसरी गतिमें चली गई। कहा है कि"आयुःकर्मणि हि क्षीणे, नंद्रोऽपि स्थातुमीश्वरः।" . [आयुकर्मके समाप्त होजानेपर इंद्र भी रहने में समर्थ नहीं होता।] (५११-५१५) . प्रियाके वियोग-दुःखसे ललितांगदेव इस तरह गिरकर मृञ्चित हो गया, मानो वह पर्वतसे गिरा हो या वनके आघातसे गिरा हो। थोड़ी देरसे जब वह होशम आया तब वह जार जार रोने लगा। उसकी प्रतिध्वनि ऐसे जान पड़ती थी मानों सारा श्रीप्रभ विमान रो रहा है। बाग-बगीचोंमें उसका मन न लगा, वापिकाओंके (ठंडे पानीसे) उसका मन ठंडा न हुआ, क्रीडापर्वतमें उसे शांति न मिली और नन्दनवनसे भी उसको खुशी न हुई। हा प्रिये ! तू कहाँ है ? हा प्रिये ! हा प्रिये ! पुकारता और रोता, वह सारी दुनियाको, स्त्रयंप्रभामय देवता, चारों तरफ फिरने लगा। (५१६-५१६) - उधर स्वयंबुद्ध मंत्रीको भी अपने स्वामीकी मौतसे वैराग्य पैदा हुआ। और उसने श्रीसिद्धाचार्य नामक आचार्यसे दीक्षा लेली । वह बहुत वर्षों तक निरतिचार दीक्षा पाल, श्रायु पूर्णकर, ईशान देवलोकमें इंद्रका 'धर्मा' नामक सामानिकदेव हुआ। (५२०-५२१) - उस उदारवुद्धिवाले देवके मन में पूर्वभवके संबंधसे, बंधुकासा प्रेम हुआ। वह (अपने विमानसे) ललितांगदेवके पास
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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