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________________ ७५० ] त्रिषष्टि शलाका पुनप-चरित्रः पर्ष ३. सर्ग ६. - - - महासत्व ! तुम अपने प्रात्मामें विवेक धागा करो।" (११६-१४५) प्राह्मणने कहा, हे गाला ! मैं प्राणियोंक संसारके स्वरूपको अच्छी तरह जानता हूँ मगर पुत्र शोकसे श्रान भूल गया हूँ। कारण-जब तक मनुष्यको इष्टवियोगका अनुभव नहीं होता तब तक सभी सबकुछ जानते हैं और धीरज रखते हैं। हे स्वामिन ! हमेशा, अइतकं अादेशम्पी अमृतपानसे जिनका चित्त निमस्त हुया है से, तुम्हार समान, धीरनधारी और वियेकी पुरुप घिरलेही होते हैं। हे विवेकी ! श्रापने मुझ मोहमें फंसनेवालेको उपदेश दिया, यह बहुत उत्तम किया; मगर, यह विवेक तुम्हें, अपनी यात्माक लिए भी धारण कर लेना चाहिए । कष्ट होनेपर मोहादिक द्वारा नाश होती हुइ यह श्रात्मा रक्षणीय है। कारण, हथियार. इसलिए धारण किए जाते हैं, फिच संकटक समय काममें यावे; मगर उनका उपयोगहर. समय नहीं होता। यह काल रंक और चक्रवर्ती सबके लिए समान है। यह किसी के भी ग्राण और पुत्र ले लाते नहीं डरता। जिस घरमें थोई पुत्र होते है उसमें थोड़ मरने हैं और जिसमें अधिक होते हैं, उसमें अधिक मरत है, मगर पीड़ा दोनोंको इसी तरह समान होती है जिस तरह कीड़ेपर व हाथीपर थोड़ा और अधिक प्रहार होनसे उनको होती है। जैसे मैं अपने एक पुत्रका नाश होनसे शोक नहीं कींगा सेही, तुम भी अपने सभी पुत्रांका नाश होनपर भी शोकन करना । हे राजा! मुजपराक्रमसे मुशोभित तुम्हारे साठ हजार पुत्र कालरोगसे एक साथ मृत्युको पाप हैं।” (१४६-१५५)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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