SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 771
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री अजितनाथ चरित्र - [७४७ - देवीकी बात सुनकर तोत्र ( बाँसकी लकड़ी) की तरह हरेक गाँव और हरेक शहरमें फिरता हा मैं यहाँ आया है। हे राजन् ! आप सारी पृथ्वीके रक्षक हैं; बलवानोंके नेता हैं। आपके समान दूसरा कोई नहीं है। वैतान्य पर्वतके दुर्गपर स्थित दोनों श्रेणियोंमें रहनेवाले विद्याधर भी आपकी आज्ञाको, मालाकी तरह मस्तकपर धारण करते हैं; देवता भी सेवककी तरह आपकी आज्ञा मानते हैं। नवनिधियाँ भी हमेशा आपको इच्छित पदार्थ देती हैं। दीन लोगोंको आश्रय देना आपका सदाका व्रत है । मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरे लिए कहींसे मंगलाग्नि मँगवा दीलिए; जिससे देवी मेरे पुत्रको जिंदा करदे। मैं पुत्रके मरनेसे अत्यंत दुखी हूँ।" ( ११०-११५) राजा संसारके दुखोंको जानते थे, तो भी वे करुणावश ब्राह्मणके दुखोंसे दुखी हुए। कुछ क्षणों के बाद कुछ सोचकर कहने लगे, "हे भाई! इस पृथ्वीमें पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुकी तरह सभी घरोंमें हमारा घर बहुत उत्कृष्ट है। परंतु इस घरमें भी तीन अगतके लिए मानने योग्य शासनवाले, तीर्थंकरोंमें प्रथम और राजाओं में भी प्रथम, और लाख योजन ऊँचे मेरुपर्वतको डडेके समान बना (उसके सहारे) अपनी भुजाओंसे इस पृथ्वीको छत्रके समान बनाने में समर्थ और चौसठ इंद्रोंके मुकुटोंसे जिनके चरणकमलोंकी नखपंक्तियाँ चमक उठी थीं ऐसे ऋपभस्वामी भी कालके योगसे मृत्युको प्राप्त हुए। उनके प्रथम पुत्र भरतराजा भो-जो चक्रवर्तियों में प्रथम थे, सुरासुर सभी आनंदसे जिसकी आज्ञा मानते थे और जो सौधर्मेद्रके प्राधे श्रासनपर अठते धे-आयुष्य समाप्त होनेपर इस नर-पर्यायको छोड़कर चले
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy