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________________ ७३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ५. जाएगा कि यह चैत्य हमनेही बनवाया है। कारण जय दुःपम काल पाएगा तब लोग अर्थलोलुप, सत्वहीन और कृत्याकृत्यविचारहीन होंगे। इसलिए नए धर्मस्थान धनवानेकी अपेक्षा पुराने धर्मस्थानोंकी रक्षा करना ही अधिक अच्छा होगा।" (१२८-१३४) यह सुनकर सभी छोटे भाइयोंने इस चैत्यकी रक्षाकेलिए उसके चारों तरफ खाई खोदने के लिए दंडरत्न उठाया। फिर मानो तीव्र तेजसे सूर्य हो ऐसे जह अपने भाइयों के साथ नगर. की तरह अष्टापदके चारों तरफ खाई बनानेके लिए दंडरत्नसे पृथ्वी खोदने लगा। उनकी आज्ञासे दंडरत्नने हजार योजन गहरी खाई खोदी । उससे वहाँ नागकुमारोंके मंदिर अपने मंदिरोंके टूटनेसे, समुद्रका मथन करनेसे जैसे जलजन्तु क्षुब्ध होते हैं वैसे, सारा नागलोक क्षुब्ध हो उठा । मानो परचक्र आया हो, मानो आग लगी हो या मानो महावात उत्पन्न हुमा हो ऐसे नागकुमार इधर उधर दु:खी हो डोलने लगे। अपने नांगलोकको इस तरह आकुल देख नागकुमारोंका राजा ज्वलन. प्रभ क्रोधसे अग्निकी तरह जलने लगा। पृथ्वीको खुदा देख ये क्या है ? यह सोचता हुआ वह शीघ्रतासे बाहर निकला और सगरचक्रीके पुत्रोंके पास आया। चढ़ती हुई तरंगोवाले समुद्रकी तरह चढ़ी हुई भ्रकुठिसे वह भयंकर लगता था। ऊँची ज्वालाओंवाली श्रागकी तरह कोपसे उसके ओंठ फड़क रहे थे। तपे हुए लोहेके तोमरोंकी श्रेणीके जैसी लाल दृष्टि वह डालता था, वनाग्निकी धोकनीके समान अपनी नासिकाको फुलाता था और यमराजकी तरह क्रुद्ध और प्रलयकालके सूर्यकी तरह
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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