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________________ .. भी अजितनाथ-चरित्र [७३३ जिसके सामने न देखा जा सके ऐसा वह नागपति सगरपुत्रोंसे ... कहने लगा-(१३५-१४४) __ "अरे! तुम अपनेको पराक्रमी माननेवाले और दुर्मद हो ? तुमने भील लोगोंको जैसे किला मिलता है वैसे दंडरत्न मिलनेसे यह क्या करना शुरू किया है ? हे अविचारपूर्वक काम करनेवालो! तुमने भवनपतियों के शाश्वत भवनोंको यह कैसी हानि पहुंचाई है ? अजितस्वामीके भाईके पुत्र होकर भी ..तुमने पिशाचोंकी तरह यह दारुण कर्म करना कैसे शुरू किया है" (१४५-१४७) तब जहुने कहा, "हे नागराज ! हमारे द्वारा आपके स्थान गिरे है इससे पीड़ित होकर आप जो कुछ कहते हैं वह योग्य है, मगर हम देडरत्नपालोंने आपके स्थान द्वटें इस बुद्धिसे यह पृथ्वी नहीं खोदी है। हमने तो इस अष्टापद पर्वतकी रक्षाके लिए चारों तरफ खाई बनानेको यह पृथ्वी खोदी है। हमारे वंशके मलपुरुष भरत चक्रवर्तीने रत्नमय चैत्य और सभी तीर्थकरोंकी रत्नमय सुंदर प्रतिमाएँ वनवाई हैं। भविष्यमें, कालके दोषसे, लोग इनको हानि पहुँचाएँगे इस शंकासे हमने यह काम किया है। आपके स्थान तो बहुत दूर है, यह जानकर हमारे मनमें उनके टूटने की शंका नहीं हुई थी। मगर ऐसा होनेमें • हमें इस दंबरलकी अमोघ शक्तिकाही अपराध मालूम होता है। इसलिए अहंतकी भक्तिके वश होकर हमने विना विचारे मो काम किया है उसके लिए भाप हमें क्षमा करें। अब फिरसे हम ऐसा नहीं करेंगे।" (१४८-१५४) इस तरह विनयपूर्वक नहुकुमारों द्वारा कही गई बात
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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