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________________ श्री अजितनाथ-चरित्र [६३ इस तरह क्रोधपूर्वक कहते हुए ब्राह्मणोंकी पर्पदाने उसका बहुत तिरस्कार किया। उधर वहाँ कोई सम्यग्दर्शनवाली देवी रहती थी। उसने चालकको भ्रमरकी तरह कमल के अंदर झेल लिया और ज्वाला ओंके जालसे विकराल बने हुए उस अग्निकी दाहशक्तिको हर लिया; ऐसेही उसके लड़केको मानो चित्रस्थ हो ऐसा बना दिया। उस देवीने पूर्व मनुष्य-भवमें संयमकी विराधना की थी इससे वह मरकर व्यंतरी हुई थी। उसने किन्हीं केवलीसे पूछा था,-"मुझे बोधिलाभ-सम्यक्त्वप्राप्ति कय होगी ?" केवलीने कहा था, "हे अनघे! तू सुलभबोधि होगी; मगर तुझे सम्यक्त्वकी प्राप्तिके लिए सम्यक्त्वकी भावनामें अच्छी तरह उद्योगी रहना होगा।" इस वचनको वह हारकी तरह हृदयपर धारण किए फिरती थी। इसीलिए सम्यक्त्वका माहात्म्य बढ़ाने के लिए उसने ब्राह्मणके पुत्रकी रक्षा की थी। इस तरह जैनधर्मके प्रभावको प्रत्यक्ष देखकर ब्राह्मणोंकी आँखें विस्मयसे विस्फारित हो गई। वे ब्राह्मण जन्मसे लगाकर अष्टपूर्वी हुए अर्थात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थी ऐसी बात उस दिन देखी ।)शुद्धभटने घर जाकर अपनी स्त्रीसे यह बात कही और सम्यक्त्वके प्रभावके प्रत्यक्ष अनुभवसे उस ब्राह्मणको आनंद हुआ। विपुला साध्वीके गाढ संपर्कसे विवेक. घाली बनी हुई ब्राहाणी, "अहो ! धिक्कार है ! तुमने यह क्या किया ? सम्यक्त्वका भक्त कोई देवता पासही था इसीलिए तुम्हारा मुख उस्त्रल हुआ, मगर यह तुम्हारे क्रोधकी चंचलता है; यदि उस समय सम्यक्त्वकी महिमा प्रकट करनेवाला कोई
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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