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________________ ६८४ त्रिषष्टि शलामा पुरुष-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३. - यतावही आसपासम न होता. तो तुम्हारा पुत्र जल जाता और लोग जैनधर्मकी निंदा करते। यदि ऐसा होता तो भी जैनधर्म अप्रमाणित न होता । ऐसे प्रसंगोंपर जो लोग यह कहें कि "जैनधर्म अप्रमाण है." उनको विशेष पापी समझना चाहिए। मगा-तुमने तो ऐसा काम किया है जैसा मूर्ख मनुष्य मी नहीं करता। इसलिए हेयायपुत्र! फिर कमी एसा काम न करना।" यों कहकर वह स्त्री अपने पतिको मम्यक्त्व में स्थिर करने के लिए, यहां हमारे पास लाई है। यही सोचकर इस ब्राह्मणने हमसे प्रश्न किया था और हमने उत्तर दिया था, "यह सम्यक्त्वकाही प्रभाव है।" भगवानके ये बचन सुनकर अनेक प्राणी प्रतिबोध पाए और धममें स्थिर हुए. शुद्धभटने मट्टिनी सहित भगवानसे दीक्षा ली, और अनुकमसे उन दोनोंको केयलझान हुआ। (११२-१३६) जगतपर अनुग्रह करनेम नल्लीन और चक्रसे चक्रीकी तरह आगे चलते हुए धर्मचक्रसे मुशोभित भगवान अजितम्वामी . देशना समाप्त कर उस स्थानसे रवाना हुए और पृथ्वीपर ... विहार करने लगे। (६३७) आचार्य श्री हेमचंद्रविरचित त्रिपटिशलाका पुरुप चरित्र महाकाव्यके दूसरे पर्वमें अजितस्वामीका दीक्षा-केवल . वर्णन नामका तीसरा सर्ग समाप्त हुआ।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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