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________________ ३] त्रिपष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग १. यौवनरूपी लक्ष्मी, विजलीकी तरह देखतेही देखते विलीन हो जानेवाली है । उम्र धजाकी तरह चपल है। संपत्ति तरंगोंकी तरह तरल हैं। भोग भुजंगके फनकी तरह वक्र है। और संगम ( संयोग) सपनेकी तरह मिथ्या है । शरीरके अंदर रहनेवाला आत्मा, काम, क्रोधादिके तापोंसे तपकर-पुटपाक की तरह रातदिन पकता रहता है। अफसोस ! बहुत दुःख देनेवाले इन विषयोंमें सुख माननेवाले मनुष्य गंदगीमें रहनेवाले कीड़ोंकी तरह, कभी विरागी नहीं बनते । महान दुख देनेवाले विषयोंके स्वादमें फंसकर पराधीन बने हुए मनुष्य सामने खड़ी हुई मौतको इसी तरह नहीं देख पाते हैं जैसे अंधा आदमी अपने सामनेके कुएँको नहीं देख पाता है। विपकी तरह पहले हमलेमेंही, मधुर विषयोंसे अात्मा मूच्छित (बेहोश) होजाती है इसलिए अपने भनेकी कोई बात वह नहीं सोच पाती। चारों पुरुषायोंकी समानता है तो भी आत्मा पापनपी अर्थ और काम पुनपार्थमें ही लीन रहती है; धर्म और मोक्ष पुरुषार्थमं प्रवृत्ति नहीं करती। इस अपार संसाररूपी समुद्र में प्राणियोंके लिए अमूल्य रत्नकी तरह मनुष्यदेह पाना बहुत कठिन है। यदि मनुष्यशरीर मिलता है तो भी भगवान अहतदेव और निग्रंथ सुसाधु गुरु पुण्यके योगसेही मिलते हैं। यदि हम मनुष्यभवका फल ग्रहण नहीं करते है तो हमारी दशा शहरमें रहते हुए भी लुट जानेवाले मनुष्यके जैसी होती है, इसलिए अब १. किसी दरतनमें भरकर कोई चीज रखी जाती है। बरतनका मुह बन्द कर दिया जाता है और उसके चारों तरफ भाग जलाई बानी है।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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