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________________ चौथा भव-धनसेठ .. ३७ - तरह ऊँचे और तलुए समान थे, उसका मध्यभाग सिंहके मध्य भागका तिरस्कार करनेवालोंमें अग्रणी था ( उसका छातीके नीचे और जंघाओंके ऊपरका भाग मोटा न था।) उसकी छाती पर्वतकी शिला (चट्टान) के समान थी। उसके दोनों ऊँचे कंधे बैलोंके कंधोंकी शोभाको धारण करने लगे। उसकी भुजाएँ शेषनागके फनोसी सुशोभित होने लगीं । उसका ललाट आधे उगेहुए (पूर्णिमाके) चंद्रमाकी लीलाको ग्रहण करने लगा। और उसकी स्थिर आकृति, मणियोसी दंत-पंक्ति (दौतोंकी कतार) से, नखोंसे और सोनेके समान कांतिवाले शरीरसे, मेरु पर्वतकी समग्र लक्ष्मीके साथ तुलना करने लगी। (२३६-२४६) - एक दिन सुबुद्धि. पराक्रमी और तत्वज्ञ विद्याधरपति शंतबल राजा एकांतमें बैठकर सोचने लगा, "यह शरीर कुदरतीही अपवित्र है, इस अपवित्रताको नये नये ढंगों से सजाकर कवतक छिपाए रहूँगा ? अनेक तरहसे सदा सत्कार पाते हुए भी यदि एकाध बार सत्कारमें कसर हो जाती है तो दुष्ट पुरुषकी तरह यह शरीर विकृत हो जाता है। विष्टा (पाखाना) मूत्र (पेशाब ) और कफ जब शरीरसे बाहर निकलते हैं तब मनुष्य उनसे दुखी होता है-नफरत करता है; मगर अफसोस है कि येही चीजें जब शरीरमें होती हैं तो मनुष्यको कुछ ख्याल नहीं आता। जीर्ण वृत्तकी कोटरमें (पेड़के खोखले भागमें ) जैसे सर्प, बिच्छू वगैरा कर प्राणी पैदा होते है वैसेही शरीरमें पीड़ा पहुँचानेवाले अनेक रोग पैदा होते हैं। शरदऋतुके बादलोंकी तरह यह शरीर स्वभावसेही नाशवान है।
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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