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________________ ५३२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पच २. सग १. "....''पापानां नृयो भागी तपस्त्रितपसामिर ।" [जैसे राजा तपस्वीके तपका हिस्सेदार होता है वैसेही प्रजाके सभी पापोंका भी वह हिस्सेदार होता है। ] तू काम. क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको जीतना; कारण, इनको जीते वगैर बाहरी शत्रुओंको जीतना या न जीतना समान है। दक्षिण (चतुर) नायक जैसे अनेक पत्नियोंका यथासमय सेवन करता है वैसेही नू धर्म, अर्थ और कामका यथाअवसर सेवन करना, एकको दुसरेका बाधक न होने देना । इन तीनोंकी साधना इस तरह करना क्रि, जिससे चौथे पुरुपार्थ-मोक्षकी साधनामें कोई विन्न न श्रावे तेरा उत्साह भंग न हो।" (२१०-२२६) . गू कहकर राजा विमलवाहन जब चुप रहा तब कुमारने ऐसाही होगा' कहकर उस उपदेशको अंगीकार किया। फिर कुमारने सिंहासनसे उठकर, त्रत ग्रहण करनेके लिए तैयार होते हए अपने पिताको हाथका सहारा दिया। इस तरह छड़ीदारस भी अपनेको छोटा माननेवाले पुत्रके हायका सहारा लिए हुए राजाने अनेक कलशांसे भूषित स्नानगृहमें प्रवेश किया । वहाँ उसने मगरके मुखवाली सोनेकी मारियोंसे निकलते हुए, मेघकी धाराके समान जल से स्नान किया, कोमल रेशमी वनसे शरीरको पोंछा और उसपर गोशीर्ष चंदनका लेप किया । गुथना जाननेवाले पुरुषोंने, नील कमलके समान श्याम और पुष्पगमेके जैसे,राजाके केशपाशको चंद्रगर्भित मेघकी तरह सुशोभित किया। विशाल, निर्मल,स्वच्छ और अपने समान उत्तम गुगणवाले, दिव्य और मांगलिक दो वन राजाने.धारण किए। फिर सब रानाओम मुकुटके समान उस रानाने, युमारके द्वारा
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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