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________________ ५१५ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व २. सर्ग?. जैसे सबंध भगवान उसके एकमात्र स्वामी थे उसी तरह, सभी राजाओंका वह एकमात्र स्वामी था। इंद्रकी तरह शत्रुओंकी शक्तिकानाश करनेवाला वह पराक्रमी राजा अपना मन्तक मात्र माघ पुन्योंके सामनेही काना था। उस विवेकी गजाकीशक्ति, जैसे बाहरके शत्रुओंको जीतनेमें अनुज्ञ श्री वेसही, काम-क्रोधादि अंतरंग शत्रुओंको जीतने में भी अतुल थी। अपने बलसे वह, जैसे उन्मार्गगामी (सीचे रस्त न चलनेवाले) और दुर्मद हाथी, घोड़ा वगैराका दमन करता था वैसही, उन्मार्गगामिनी अपनी इंद्रियोंका भी दमन करता था। पात्रको दिया हुया दान सीपमें पड़े हुए मेवजन्तकी तरह बहुत फलदायी होता है। यह सोचकर वह दानशील राजा यथाविधि पात्रकोही दान देता था। जैसे परपुरमें सावधानी के साथ प्रवेश करता हो ऐसे बह घमात्मा राना अब जगह मजाक लोगांका घमंमागपही चलाता था। चंदन वृन जैसे मलयाचनकी पृथ्वीको सुगंधमय बनाव है उनी तरह वह अपने पवित्र चरित्रसे सारे जगतको सुवासित करता था। शत्रुओंको जीतनेस, पीड़ित प्राणियोंकी रक्षा करनेसे, और याचकोंको प्रसन्न करने वह गाजा युद्धवीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। इस तरह वह, राजवनम रह, वृद्धिको स्थिर स्त्र,प्रसादको छोड़,सर्पराज से अमृतकी रक्षा करना है वैसेही, पृथ्वीकी रक्षा करता था । (२५-१२) कार्य और अकार्यको जाननेवाले और सार व प्रसारको खोजनेवान्न उस राजा मनमें एक दिन संसारकं वैराग्यका बांत उत्पन्न हुई और वह इस तरह सोचने लगा, "अहो! लाखा योनिल्यो महान मँवरों में गिरने के क्लेशसे भयंकर इस संसार
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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