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________________ ४६८ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ६. बहुत समयतक विहार किया था, मगर मुक्तिमें किसका उपकार करनेके लिए आप गए हैं ? आप जिस लोकाग्रमें गए हैं वह सचमुचही लोकाग्र (मोक्ष) हुआ है। और आपने जिसे छोड़ दिया है वह मर्त्यलोक वास्तव में मर्त्यलोक (मर जाने योग्य) हुआ है। हे नाथ ! जो विश्वका उपकार करनेवाली आपकी देशनाको याद करते हैं वे भव्य प्राणी अब भी आपको साक्षातसामनेही देखते है और जो श्रापका रुपस्थ (आकृतिका) ध्यान करते हैं उन महात्माओंके लिए भी आप प्रत्यक्ष ही है । हे पर. मेश्वर ! जैसे आपने ममता-रहित होकर सारे संसारका त्याग किया है उसी तरह अब मेरे मनका त्याग कभी न कीजिए।" (६४५-६५३) १-इस तरह श्रादीश्वर भगवानकी स्तुति करनेके बाद हरेक जिनंद्रकीभी, उनकोवंदना कर करके इस तरह स्तुति की। २-विपय-कपायोंसे अजित, विजयामाताकी कोखमें माणिक्यरूप और जित राजाके पुत्र हे जगतके स्वामी अजितनाथ ! आपकी जय हो! ३.संसाररूपी आकाशका अतिक्रमण करनेम (लाँघनेम) सूर्यरूप, श्रीसनादेवीके गर्मात्पन्न जितारि रानाके पुत्र हे संभवनाथ ! में आपको नमस्कार करता हूँ। -संवर राजाके वंशमें ग्रामपणरूप, सिद्धाथा देवीरूपी पूर्व दिशामें सूर्यके समान और विश्वके लिए आनंददायी हे अभिनंदन स्वामी! आप हमको पवित्र कीजिए। ५-मेघराजाके वंशरूपी वनमें मेषके समान और मंगला -
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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