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________________ भरत-बाहुबलीका वृत्तांत [४२६ मुकाए खड़ा रहा। फिर मानो मूर्तिमान शांत-रस हों ऐसे अपने भाईको, थोड़े गरम आँसुओंसे, मानो बाकी रहे हुए क्रोधको भी बहा देता हो ऐसे, भरत राजाने प्रणाम किया। प्रणाम करते समय बाहुबलीके नखरूपी दर्पणोंमें उसके प्रतिविंब दिखाई देते थे, वे ऐसे जान पड़ते थे मानो भरतने अधिक उपासना करनेकी इच्छासे अनेक रूप धारण किए हैं। फिर भरत बाहुवलीके गुणस्तवन और अपवादरूपी रोगकी दवाके समान आत्मनिंदा करने लगा:--- ___ " (हे भाई !) तुमको धन्य है कि तुमने मुझपर अनुकंपा (दया) करके राज भी छोड़ दिया। मैं पापी और दुर्मद हूँ कि, मेने असंतुष्ट होकर तुमको इस तरह सताया। जो अपनी शक्तिसे अजान है, जो अन्यायी है और जो लोभके वशमें हैं उनमें मैं धुरंधर (मुख्य) हूँ। जो पुरुष इस राज्यको संसाररूपी वृक्षका वीज नहीं समझते वे अधम हैं। मैं उनसे भी अधिक अधम हूँ; कारण यह जानते हुए भी मैं इस राज्यको नहीं छोड़ता। तुम पिताजीके सच्चे पुत्र हो कि, तुमने उन्हींका मार्ग अंगीकार किया। यदि मैं भी तुम्हारे समान वनूँ तो पिताजीका वास्तविक पुत्र कहलाऊँ।" . इस तरह पश्चात्तापरूपी जलसे विपादरूपी कीचड़को धो, भरत राजाने बाहुबलीके पुत्र चंद्रयशाको राजगद्दीपर बिठाया। उन्हींसे चंद्रवंश शुरू हुआ और उसकी सैकड़ों शाखाएँ फैली। वह ऐसे पुरुषरत्नोंकी उत्पत्तिका हेतुरूप हो गया। (७४०-७५५) फिर भरत राजा बाहुबली मुनिको नमस्कार कर अपने
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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