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________________ १३.] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पत्र १. सग ५. परिवार सहिन न्वर्ग गन्यलक्ष्मीकी सहोदरा समान अपनी अयोध्या नगरी में गया । (७५६) भगवान बाहुबली मानों पृथ्वीमसे निकले हो अथवा श्राकाशसं उतर ही ऐसे वहाँ अकन्नही कायोत्सर्ग ध्यानमें रहे। व्यानमें लीन बाहुबलीकी दानां प्रान्त नासिका अन-मागपर स्थिर थीं और मानों दिशाओंको साधनका ( वश में करनका ) शंकु (न्तम ) हो ऐसे स्थिर खड़े हुए व महात्मा मुनि शोमतं थे। श्रागकी चिनगारियों नमान गरमाता कन्याल गरमाके मौसमक्री प्राधियांका ,वनयनकी नरह सहन थे। अग्निकुंडकं समान दुपहरीका मुरज उनकं मगपर तपना था, तो भी व्यानन्धी अमृनमें लीन उन महात्मापर, उसका कोई असर नहीं होना था। सरन पर न लगी लि पमीन कीचड़के समान हो रही थी। इससे व कीचड्स निकले हुए बगहके समान शोमते थे।वानुम यानीकी नाड़ियांवाली हवाम,और वृक्षोंको ऋपित करनेवाली मूसलाधार बारिशम भी, व विचलिन नहीं हुए थे; पर्वतकी तरह स्थिर रहे थे। पर्वनोंक शिल्लरोको फैया देनेवाली भयंकर आवाज साथ निरनी थी, ना मी व कायोत्सर्गन यानी ध्यानसे विचलित नहीं होन थे। जंगलको वापिकाकी सीढ़ियां पर जैसे काई जम जाती है पसेही, उनके पैरोंपर वहन हुए पानीमें काई जम गई थी। सरदीक मौसममें, नदीका पानी जम गया था, इससे वह नहीं मनुध्यांका नाश करनेवाली हो उठी थी मगर ध्यानल्या अग्नि कर्मन्पी ईवनको जलानेकी कोशिश करते हुए बाहुवली वहाँ अागमस न्नड़े थे। बरफले वृक्षाको जलानबाली हमन ऋतुओंकी गतान भी, बाहुबलीका धर्मध्यान,
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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