SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२६ : त्रिषष्टि शलाका पुत्य-चरित्रः पर्व १ सर्ग ५. धर्मको भी धिक्कार है कि मैंने दंड-यायुध लिया है और उसने चक्र लिया है। उसने देवताओंके सामने उत्तम युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा कीथी: नगर इस तरहका व्यवहार करके उसने वालककी तरह प्रतिज्ञा तोड़ी है। इससे उसे धिक्कार है ! तपती जेने तमोश्या (का भय बताता है वही गुस्से होकर, उसने चक्र बताकर जैसे सारे विश्व उराया था उसी तरह मुन्ने मी हराना चाहता है नगर जिस तरह से अपने भुजदंडकी शक्ति मालूम हो गई उसी त अव उसके चक्रकी शक्ति भी उसे मान हो जाएगी!" जब बलशाली बाहुवली इस तरह के विचार कर रहा था तब भरतने अपने पूरं वलसे उसपर चक्र चलाया। (७०७-७१६) चक्रको अपनी तरफ आते देख तनशिलापति विचार करने लगा, "जीणे वलनकी नरह में इसका चूर्ण कर डाल ? गेंदके खेलकी नरह इलयर आघात करके इस कहूँ? खेल पत्यरके दुकाईकी तरह इसे श्राकाश चाल हूँ ? अथवा शिशुनाल की तरह इसे जनीनमें गाड़ दूँ ? वा चपल चिड़िया बबेकी तरह इस पकडया ववके लायक अपराधीकी तरह इस दूहाल छोड़ है? या क्वीने पड़े हुए वानकी तरह इसके अविष्टायन देवाको दबने शीनही पास बा ? अथवा ये सब बाने या होंगी, पहने इसका बल दो जान लू?" वह इस तरह सोच रहा था तब चरन भाकर,निध्य गुनसो देता है इसी तरह भरतके प्रदक्षिणावी, कारण क्रीका चक्र सामान्य सगात्री मनुष्यार भी पायान नहीं कर सकता है, तब घरमशगरा सगोत्रीपर-तो उसका असर हो ही न्यासकता था। इसलिए
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy