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________________ भरत- बाहुबलीका वृत्तांत [ ४२५ उस समय चक्री विश्वार करने लगा, "जैसे अंधा जुधारी हरेक तरहके जुए में हार जाता है उसी तरह मैं बाहुबली से हरेक युद्धमें हार गया हूँ, इससे गाय जैसे घास-दाना खाती है और उससे होनेवाला दूध गाय दुहनेवाले के उपयोग में आता है उसी तरह मेरे जीते हुए भरतक्षेत्रका उपभोग क्या यह बाहुबली करेगा ? एक म्यानमें दो तलवारोंकी तरह इस भरत क्षेत्र में एकही समयमें दो चक्रवर्ती किसीने न कभी देखे हैं और न सुनेही हैं । गधे सींगकी तरह, देवताओंसे इंद्रा और राजाओंसे चक्रवर्तीका जीता जाना पहले कभी नहीं सुना गया। तब बाहुबली के द्वारा पराजित मैं क्या चक्रवर्ती नहीं बनूँगा ? और मेरे द्वारा न जीता गया और दुनियासे भी न जीता जा सके ऐसा बाहुबली चक्रवर्ती बनेगा ?' (७०२ - ७०६ ) चक्रवर्ती इस तरह सोच रहा था तत्र चिंतामणिरत्नके समान यक्ष राजाओंोंने चक्र लाकर उके हाथमें दिया । उससे भरतको विश्वास हुआ कि मैं चक्रवर्तीड़ी हूँ और वह, चवंडर जैसे आकाशमें धूलको घुमाता है इस तरह, चक्रको आकाशमें घुमाने लगा । ज्वालाओं के जालसे विकराल बना हुआ चक्र ऐसा जान पड़ा मानों वह अकालमें कालाग्नि हो; मानों वह दूसरा वडवानल हो; मानो वह अकस्मात पैदा हुआ वज्ञाग्नि हो; मानों वह ऊँचा विजलीका पुंज हो; मानो वह गिरता हुआ सूरजका यित्र हो; मानों वह विजलीका गोला हो। चक्रवर्तीने प्रहार करनेके लिए घुमाए हुए चक्रको देखकर मनस्त्री बाहुबली अपने मनमें सोचने लगे, "अपनेको पिताका ऋपभस्वामीकापुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है ! और उसके क्षात्र
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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