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________________ ४०६ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग. - बरस बीते हैं; मगर मैं लेना चाहूँ तो तत्कालही ले लूँ । मगर इतने वर्षोंकी मेहनतसे उसे मिले हुए भरतक्षेत्रके वैभवको, धनवाले के धनकी तरह मैं भाई होकर कैसे लूँ ? चंयेके फल खानेसे जैसे हाथी मदांध होजाता है वैसेही,भरत यदि छःखंडके राजाओंको जीतकर अंधा हो गया है तो वह सुखसे रहनेमें समर्थ नहीं है। मैं उसके वैभवको छीना हुआ ही देखता हूँ, मगर मैंने जानबूझकरही उसकी उपेक्षा की है। इस समय, मानों मुझे देनेको जामिन हों ऐसे, उसके मंत्री, उसके भंडार, हाथी, घोड़े आदि और यशको सेरे अर्पण करनेके लिएही, भरतको यहाँ लाए हैं । इसलिए हे देवताओ! यदि आप उसके हितैषी हों तो उसको युद्धसे रोकिए। अगर वह न लड़ेगा तो मैं भी हरगिज नहीं लडूंगा। (४८६-५०६) . मेघको गर्जनाके समान उसके इस तरह के उत्कट (अभिमानपूर्ण) वचन सुनकर देवता विस्मित हुए और वे पुन: उससे कहने लगे, "एक तरफ चक्रवर्ती अपने युद्धका कारण चक्रका शहरमें नहीं घुसना बताता है; इससे गुरु भी, न उसको रोक सकते हैं और न निरुत्तरही कर सकते हैं। दूसरी तरफ प्राप कहते हैं "मैं लड़ाई करनेवालेहीसे लडूंगा।" इससे इंद्र भी आपको युद्ध करनेसे रोकनेमें असमर्थ हैं। आप दोनों ऋषभस्वामीके दृढ़ संसर्गसे सुशोभित हैं, महाबुद्धिमान हैं, विवेकी हैं, जगतके रक्षक हैं और दयावान हैं; तो भी जगतके दुर्भाग्यसे यह लड़ाईका उत्पात प्राप्त हुआ है। फिर भी हे वीर ! श्राप प्रार्थना पूर्ण करनेमें कल्पवृक्षके समान हैं, इसलिए आपसे प्रार्थना है कि, आपको उत्तम युद्ध करना चाहिए, अधम युद्ध
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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