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________________ भरत बाहुबलीका वृत्तांत [ ४०५ भाइयोंके राज्य छीन लिए। अपने छोटे भाइयोंके राज्य छीन - कर अपनी गुरुता उन्होंने अपने आपही खो दी है। गुरुता सिर्फ उम्र से नहीं (गुरु तुल्य) आचरणसे मानी जाती है। भाइयोंको राज्यसे हटानाही क्या उनकी गुरुता है ! अबतक मैंने भ्रांति से, लोग जैसे पीतलको सोना और काचको मणि समझते हैं ऐसेही, भरत को अपना गुरुजन माना था। पिता के द्वारा दी गई या अपने वंशके किन्हीं पूर्वज द्वारा दी गई जमीन, अपने छोटोंसे कोई साधारण राजा भी उस समयतक नहीं छीनता जबतक वे कोई अपराध नहीं करते; तब भरतने ऐसा क्यों किया ? छोटे भाइयोंका राज्य छीननेकी शरम भरतमें नहीं है । इसीलिए उसने मेरा राज्य लेने के लिए मुझे भी बुलाया है । जहाज जैसे समुद्रको पारकर अंत में किसी किनारे के पर्वत से टकरा जाता है ऐसेही वह अब सारे भरतखंड के राजाओं को जीतकर मुसे टकराया है। लोभी, मर्यादाहीन और राक्षसके समान निर्दय उस भरतको मेरे भाइयोंने शरमसे नहीं माना, तब मैं उसके कौनसे गुणसे उसको मानूँ ? हे देवताओ ! आप सभासदकी तरह मध्यस्थ होकर कहिए । भरत यदि अपने बलसे मुकेशमें करना चाहता है तो भले करे | यह क्षत्रियों का स्वाधीन मार्ग है। इतना होनेपर भी विचारपूर्वक वापस चला जाना चाहता हो तो वह सकुशल जा सकता है। मैं उसके समान लोभी नहीं हूँ कि उस लौटते हुएको मैं किसी तरह कोई नुकसान पहुँचाऊँ । यह कैसे हो सकता है कि उसके दिए हुए सारे भरतक्षेत्रका मैं उपभोग करूँ ? क्या केसरीसिंह कभी किसीका दिया हुआ खाते हैं ? कभी नहीं । उसको भरतक्षेत्र जीतने में साठ हजार
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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