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________________ भरत चक्रवर्तीका वृत्तांत . [ ३०१ अट्ठमतप किया । देवका आसन कंपित हुआ। उसने अवधिज्ञानसे चक्रवर्तीका आना जाना। वह बड़ी मुदतके वाद आए हुए गुरुकी तरह, चक्रवर्तीरूपी अतिथिकी पूजा करने आया और बोला, "हे स्वामी ! इस तमिस्रागुफाके दरवाजेपर मैं आपके द्वारपालकी तरह रहा हूँ।" यों कहकर उसने भूपतिकी सेवा अंगीकार की, और स्त्रीरत्नके योग्य अनुत्तम (जिनके समान उत्तम दूसरे नहीं ऐसे ) चौदह तिलक और दिव्य आभूषणोंका समूह चक्रवर्तीके भेट किया। उनके साथही, पहलेसे महाराजाके लिएही रख छोड़ी हों ऐली उनके योग्य मालाएँ और दिव्य वस्त्र भी अर्पण किए। चक्राने उन सभी चीजोंको स्वीकार किया। कारण, ...........'कृतार्था अपि भूभुजः । न त्यजति दिशोदंड चिह्न दिग्विजयश्रियः ॥" [कृतार्थ राजा भी दिग्विजयकी लक्ष्मीके चिहरूप दिशादंडको दिशाओंके मालिकोंसे मिली हुई भेटको-नहीं छोड़ते हैं। अध्ययनके अनमें उपाध्याय जैसे शिष्यको छुट्टी देता है वैसेही भरतेश्वरने उसे बुला, उसके साथ बड़ी कृपाका व्यवहार कर, विदा किया। पीछे भरतने मानो जुदा पड़े हुए अपने अंश हों ऐसे और पृथ्वीपर पात्र रख, हमेशा साथ बैठकर भोजन करनेवाले हों ऐसे, राजकुमारोंके साथ पारण किया। फिर कृतमालदेवका अष्टाहिका उत्सव किया। कहा है कि - . "प्रभवः प्रणिपातेन गृह ताः किं न कुर्वते ।" [नम्रता दिखानेसे जो अपनालिए जाते हैं, उनके लिए स्वामी क्या नही करते हैं ?] (२३७-२४७)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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