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________________ __३.०] निघष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ४. इसलिए वैताल्याद्रिकुमारका श्रासन कपित हुआ | उसने. अवधिनानसे जाना कि भरतक्षेत्र में यह प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है। उसने पा श्राकाशमें स्थित रह कहा,"हे प्रभो! आपकी जय हो। मैं आपका सेवक हूँ , इसलिए मुझे जो कुछ प्राज्ञा देनी हो दीजिए।" फिर मानों बड़ा भंडार खोला हो ऐसे कीमती रत्न, रत्नोंके अलंकार, दिव्यवन और प्रताप-संपत्तियोंके क्रीडा-स्थलके समान भद्रासन उसने चक्रवर्तीको भेंट किए। पृथ्वीपतिने उसकी सारी चीजे स्वीकार की। कारण, "अलुब्धा अपि गृहति, भृत्यानुग्रहहेतुना ।" [निर्लोभी स्वामी भी, नौकरोंपर मेहरबानीके लिए, उनकी भेट स्वीकार करते हैं। फिर महाराजने उसे बुला, उसका अच्छी तरह आदर-सत्कार कर, उसे विदा किया। कहा है "महांतो नावजानंति नृमात्रमपि संश्रितम् ।" [ महापुरुष अपने प्राश्रित सामान्य पुरुषकी भी अवज्ञा नहीं करते हैं।] अट्ठमतपका पारणा कर भरतने वहाँ बताव्यदेवका अवाहिका उत्सव किया। (२२७-२३६) वहाँसे चक्ररत्न तमित्रा गुफाकी तरफ रवाना हुआ। राना मी पदान्वयी (पदचिहाँको खोज करनेवाले ) की तरह उसके पीछे चले। अनुक्रमसे वे तमिन्नाके पास पहुँचे । वहाँ उन्होंने फोनकी छावनी हाली छावनीक खेमे ऐसे मालूम होते थे मानों विद्याधरोक नगर वैतास्य पर्वतसे नीचे उतरे हैं। उस गुफाके अघिष्टाता कृतमाल देवका मनमें स्मरण कर, भरतने
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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