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________________ ___२६८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३. दय और उपशम लक्षणवाला है। और दूसरोंके (मनुष्यों व तिर्यंचोंके ) श्राश्रयसे इसके छः भेद होते हैं। (निससे दूसरे प्राणियोंके मनकी बात जानी जाती है उसे मनःपर्ययनान कहते हैं।) मनःपर्ययज्ञानके ऋजुमति और त्रिपुलमति ऐसे दो भेद होते हैं। उनमेंसे विपुलमनिकी विशुद्धि और अग्रनिपातपनसे विशेषताजानना चाहिए। जो समस्त द्रव्य-पर्यायके विषयवाला है, विश्वलोचनके समान अनंत है, एक है और इंद्रियोंके विषय विनाका है वह केवलनान कहलाता है । (५७-५८४) सम्यक्त्व शास्त्रोंमें कहे हुएतत्वोंमें मचि होना सम्यश्रद्धा कहलाती है।वह श्रद्धा स्वभावसे और गुम्के उपदेशसे प्राप्त होती है, (५८५) [सम्यक् श्रद्धाकोही सम्यक्त्व या सम्यकदर्शन कहते हैं।] इस अनादि अनंत संसारके चक्कर में फिरते हुए प्राणियोंमें बानावरणी, दर्शनावरगी, वेदनी और अंतराय नामके क्रमांकी उत्कृष्ट स्थिति तीसकोटाकोटि सागरोपमकी है गोत्र व नामक्रमकी स्थिति बीसकोटाकोटि सागरोपमकी है; और मोहनीय कर्मकी स्थिति सत्तर (७०) कोटाकोटि सागरोपमकी है। अनुक्रमसे फलका अनुभव (उपमोग) करके सभी कर्म, पर्वतसे निकली हुई नदीमें टकराते टकराते पत्थर जैसे गोल हो जाते हैं उसी न्यायसे,अपने श्राप तय हो जाते हैं। इस तरह क्षय होने हुए कर्मकी अनुक्रमसे उन्नीस, उन्नीस और उनहत्तर कोटाकोटि सागरोपम तककी स्थिति क्षय होती है और एककोटाकोटि सागरोपमसे कुछ कम स्थिति वाकी रहती है नव प्रागी यथाप्रवृत्तिकरणद्वारा
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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