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________________ ... .. पाँचवाँ भव-धनसेठ . [७७ - शुरू किया। ऐसे सैकड़ों उपचार किए गए मगर उसने मौनका . त्याग नहीं किया। कारण, एक रोगकी दवा दूसरे रोगको अच्छा नहीं कर सकती। जब जरूरत होती थी तब वह लिख कर या हाथ आदिके संकेतसे परिवारके लोगोंको अपनी जरूरत बताती थी। (६४०-६४२) एक दिन श्रीमती अपने क्रीडोद्यानमें (खेलने कूदनेके बगीचे में ) गई । उस समय एकांत देखकर उसकी पंडिता नामकी दाईने कहा, "हे राजपुत्री! तू मुझे प्राणोंके समान प्रिय है और मैं तेरी माताके समान हूँ। इसलिए हमें एक दूसरेपर अविश्वास नहीं रखना चाहिए। हे पुत्री! तूने जिस कारणसे मौन धारण किया है वह कारण मुझे बता और मुझे दुखमें भागीदार बनाकर अपना दुःख कम कर । तेरा दुःख जानकर उसे मिटानेकी मैं कोशिश करूंगी।" कारण "न ह्यज्ञातस्य रोगस्य चिकित्सा जातु युज्यते ।" [ रोग जाने विना इलाज कैसे हो सकता है ? ] (६४३-६४६) .. तब श्रीमतीने अपनी पूर्वजन्मकी सही बातें पंडिताको इस तरह कह सुनाईं जिस तरह शिप्य प्रायश्चित्त के लिए सद्गुरुके सामने सही सही बातें कहता है। पंडिताने सारी बातें एक पट पर चित्रित कर ली और फिर वह पंडिता ( चतुर) पट लेकर वहाँ से विदा हुई । (६४७-६४८) नहीं दिनोंमें चावी वन्नसेनका जन्मदिन पास या रहा था, इसलिए बहनसे राजा और राजकुमार, उम गोकपर वरमा रहे थे। उस समय श्रीमती गनारको बनानेवाली
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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