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________________ ७६] त्रिषष्टि शलाका पुरुय-चरित्रः पर्व १. सर्ग १.. उसका शरीर कोमल था और उसके हाथ नवीन पत्नोंकी तरह चमकते थे। अपनी निन्ध क्रांनिमें गगनलको (पृथ्वीको) पल्लविन (आनंदिन )करती हुई उस राजबालाको इस तरह यौवन ग्रात हा जिस तरह स्वर्णकी अँगुठीको रत्न प्राप्त होता है ( गटीमें रत्न जड़ा जाता है। एक बार संध्या अभ्र लेखा जैन पर्वतपर चढ़ती है वही वह अपने सर्वतोभद्र नामकं महज़पर यानंदकं माय चढ़ी। उस समय उसने उबरसे देवताओं विमानों की जान देना। मनोरम नामक ब्यानने किन्हीं मुनिको कंवलदान हुआ था उसके पास जा रहे थे। उन्हें देखकर उस विचार आया कि मैंन पहिलभी ऐसा कहीं देता है। मोचन हाए उनको पूर्वमवधी बातें गत सपनची तरह याद आई। पूर्वमत्र बानका वान्ट म्यानम असमय हुई हो वैसे वह पलमग्ने जमीनपर, गिरी और बेहोश हो गई। सखियोंने चंदनादिने उपचार किया, इससे बट्ट होश आई और छकर इस तरह विचार करने लगा। (३२-३३६). पूर्वमत्रमें ललितांग नाम देव नेरे पति थे। उनका न्वान च्यवन हुया है। नगर अभी वे कहाँ है ? यह बात में नहीं जानती। इसीलिए मन दुःख है। मेरे दिल में बेहो बैठे हुए हैं । बट्टी में प्राणश्वर हैं। कारण कयूरकं बरतनने नमक कौन हान्न ? यदि में अपने प्राणापनिस बातचीत नहीं कर सकती हूँ दो दूसरंक साथ बातचीत करनं क्या लामा पमा सोचकर उसने मौन धारण कर लिया। (७३) जब उसने बोलना बंद कर दिया तब उसकी सन्वियाने इलको वद्रीय समन्ा और मंत्र-तंत्रादिक उपचार करना
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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