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________________ [५६ अात्मविलास ] गुणा वर्तन्त इत्येव योऽनतिष्ठति नेङ्गते । नी० भ० १४ लो २२,२३) अर्थः--(१' तत्ववेत्ता बानी पम्प चिन्तायुक्त दिखायी देने पर भी चिन्तातीत है, इन्द्रियवान होने पर भी इन्द्रियातीत है, बुद्धियुक्त होने पर भी बुद्धिसे परे है नथा अहकारयुक्त होने पर मी अहंकारसे दूर खडा है। अर्थान् बुद्धि, चित्त व इन्द्रियाँ इन सवका साक्षी हुआ इन सबसे असंग है। (२) हे पाण्डव । सत्त्वगुणमे प्रकाश, रजोगुणसे प्रवृत्ति तथा तमोगुणसे मोह उत्पन्न होता है। तत्त्ववेत्ता पुरुप इन तीनों गुणों के प्रवृत्त होने पर न द्वीप करता है और न उन निवृत्त हुए गुणों की इच्छा करता है। (क्योकि वह अपनी प्रात्मामे इन तीनों गुणोंका कोई लेप नहीं देखता)। वह तो एक साक्षी के सहश स्थित हुआ गुणोंके द्वारा चलायमान नहीं होता है। किन्तु गुण अपने गुणराज्यमें वर्त रहे हैं, ऐसा समझता हुआ अपने परमात्मस्वरूपमें अचल रूपसे स्थित रहता है और उस स्थितिसे विचलित नहीं होता। किसी प्रकारका स्वार्थ न रहनेसे अव उसके लिये कोई सड़क व गति न रह गई, सड़क तो सार्थके साथ थी जो कि इसको अपनी ओर खींचती थी । अव वायुयानके समान सम्पूर्ण पायुमण्डल हो इसके विहारके लिये नन्दनवन है। वास्तवमे सब गतियाँ उसके द्वारा सिद्ध होरही हैं, परन्तु वह सव गतियोंसे रहित मन्दराचलके समान अचल है। इस प्रकार उसकी चेष्टाओंको केवल गुणातीत कहा जा सकता है, सपि सब गुण उसीके द्वारा वर्त रहे हैं, परन्तु वास्तव में वह सव गुणोंसे अतीत है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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