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________________ ५७] [पुण्य-पापकी व्याख्या नत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकमविभागयोः । गुणा गुणेषु वतन्त इति मत्वा न मन्जते ।।(यी० अ० ३ श्लो २८) ___ अर्थः हे महाबाहु ! तत्त्वको जाननेवाला बोगी गुण व कर्मके विभागमें 'गुण अपने गुणोंमे वर्तते हैं। ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता, अर्थान् गुण और कोमे सानीरूप से यतता हुआ भी कमलदलके समान निर्लेप रहता है। यहा अवस्था पुण्य-पापसे रहित केवल पुण्य और सुखदुःखसे रहित केवल सुख है। सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।। असक्तं सबभृञ्च निर्गुणं गुणभोक्त च ॥ (गां० अ० १३ श्लो १४) भावार्थ:--सव इन्द्रिय व गुणोको प्रकाश करता है, किन्तु वास्तधमे वह सब इन्द्रियोंसे छूटा हुआ है, सवका भरणपोपण करता हुआ भी वह निर्लेप है और मव गुणोंका भोक्ता होकर भी वास्तवमें सब गुणोंसे अतोत है। . पुण्य-पाप, सुख-दुख, गुण-इन्द्रिय, गति व चेष्टा इत्यादि तो प्रकृति के राज्यमे हो अपना प्रभाव जमाये हुए थे और कॉटेके समान खटकते थे तथा प्रकृतिका सम्बन्ध परिच्छिन्न-अहंकार तक ही था। अब उसने तत्त्वविचारद्वारा सिंहके समान परिच्छिन्न-अहंकारके पिंजरेको चूरमूर कर दिया और प्रकृतिके राज्यसे लंघ गरा। सर्वात्मैक्यभावना (नव में ही है) को ऑधी जो वेगमे चली तो प्रकृति व अहंकारको तृणके समान उड़ा ले गई। अब उसने प्रकृति के रूपको ज्यका. त्यं जान लिया ओर प्रकृतिको कलई खुल गई । वास्तवमें. तो प्रकृतिने पुरुष के रिमानेको यह नाना खेल रचे थे और उसको अपनी कलाओं
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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