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________________ ५५] [ पुण्य-पापकी व्याख्या का सम्बन्ध नहीं है, अर्थात् अाकाशके समान वह भूतोमें असंग रूपसे स्थित है । सब कुछ उसके द्वारा किया जाता है, परन्तु उसमें कुछ नहीं किया जाता, अर्थात् सब कुछ करता हुआ भी कर्तृत्व-अहंकारके गलित हो जानेसे वह कुछ नहीं करता। सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशो। नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कास्यन् ।। (गी० अ० ५ श्लो० १३) ___ भावार्थ:-नव द्वारवाले शरीररूपी घरमे स्थित योगयुक्त पुरुष निश्चयसे सर्व कर्मोका त्याग करके, अर्थात् 'इन्द्रियाँ अपने विपयोमे वर्तती हैं, मेरेमे उनका कोई स्पर्श नहीं ऐसा तत्त्वसे जानता हुया अपने मचिदानन्दस्वरूपमे स्थित हुआ निस्सन्देह न कुछ करता है और न कुछ करवाता है। अव उसका सम्पूर्ण भूतोंमे न किसीमे राग है न द्रुप, यहाँ तक कि रागसे भी न राग है और द्वपसे भी न द्वेष वह तो अव राग-द्वपम छूटा हुआ सम्पूर्ण मनोवृत्तियोका आत्ममावसे स्वागत कर रहा है। सब राग-द्वीपोंको सत्ता देनेवाला वही है परन्तु वास्तवमें सब राग-द्वेयोंसे परे है। (१) ज्ञः सचिन्त्योऽपि निश्चिन्त सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः । - सबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहंकृतिः । (अष्टावक्र गीता) (२) प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । न द्वोष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि' कांक्षति ।। उदासीनवदासीनो गुणयों न विचाल्यते ।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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