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________________ [ साधारण धेर्म पतिरूपसे, पुत्रके लिये पितारूपसे, माताके लिये पुत्ररूपसे, भाई के लिये भ्रतारूपसे, श्वसुरके लिये जामातारूपसे इत्यादिक अनेक सम्बन्धोंसे एक ही वस्तु ग्रहण होती है। एक ही वस्तुमे भिन्न-भिन्न सम्बन्धोंके भेद, रूपभेद, गुणभेद, व्यवहारभेद, मात्राभेद, अनुकूलता-प्रतिकूलताभेद, पाप-पुण्यभेद, रुचिभेद, राग-द्वेपादिभेद जीव-जीय प्रति अपनी-अपनी सृष्टिको ही स्पष्ट प्रमाणित करते हैं। एक ही स्त्रीके साथ पिताका कुछ व्यवहार है और पतिका कुंछ और, तथा एक ही व्यवहार एक ही वस्तुमें एकके लिये अनु. कून व पुण्यरूप है तो दूसरेके लिये प्रतिकूल व पापरूप । कहाँ तक स्पष्ट किया जाय, इत्यादि वातोसे अपनी-अपनी सृष्टिकी विलक्षणता सिद्ध नहीं होती तो और क्या सिद्ध होता है ? एक ही क्षणमें कोई हस रहा है, कोई गा रहा है, कोई लड़ रहा है, कोई झगड़ रहा है, कोई रो रहा है, कोई सो रहा है, कोई सोच रहा है, कोई खाता है, कोई पीता है, किसीकी दृष्टि किसीसे लड़ी है और किसीकी कहीं अड़ी है । एक ही क्षणमें जव असंख्य भिन्न-भिन्न विलक्षण क्रियाएँ होरही है, फिर सृष्टि एक कैसे हुई ? ' (६३) उपर्यक्त व्याख्यासे कमसे कम अपनी-अपनी मानसिक सृष्टिकी विलक्षणता तो स्पष्ट हो चुकी। अब अधिभौतिकसृष्टिके सम्बन्धमें तुम्हारी यह शङ्का भी कि 'यदि सृष्टि अपनीअपनी होती तो सम्मुख देशमें स्थित एक ही घटकी सबको उपलंधिं न होती, किन्तु जितने द्रष्टा हैं उतने ही घट सम्मुख देशमें मिलने चाहिये सर्वथा निर्मूल है। यदि हमारे मतमें सृष्टिकी उत्पत्ति होती तवं तुम्हारी इस शक्षाका कुछ मूल्य हो सकता था, क्योंकि यदि सृष्टिकी उत्पत्ति अङ्गीकार होती तो जो देश एककी सृष्टिस निरुद्ध है, उसी देशमें अन्यकी सृष्टिको अवकाश नही, मिल सकता था, इसलिये जितने द्रष्टा है उतनेहीघटोंकी उपलब्धि
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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