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________________ श्रामविलास द्वि० खण्ड साधन प्रत्यक्ष-अनुमानादि पट प्रमाण ही शास्त्रकारोने अङ्गीकार किये हैं, जिनमे प्रत्यक्ष-प्रमाणको सब शानकारोंने शेष सव प्रमाणोंका राजा अङ्गीकार किया है। अर्थात् प्रत्यक्ष-प्रमाणके बिना अन्य किसी भी प्रमाणकी सिद्धि हो नहीं सकती। परन्तु उपयुक्त रीतिसे श्रौत, चातुष, त्वाच, रासनादि सभी प्रत्यक्ष अनिश्चित हैं। एकके प्रत्यक्ष-प्रमाणमे जो वस्तु जैसी अनुभव हुई, अन्य अपने प्रत्यक्ष-प्रमाणमें ही उसी वस्तुको अन्य रूपसे प्रमा णित करता है। जो एक ही रचयिता एक ही सृष्टि इतनी विचित्र स्वभाव रचना करे, ऐसा रचयिता प्रमादी ही कहा जायगा। इस प्रकार प्रत्येक जातिगत व व्यक्तिगत प्राकृति, प्रकृति व रुचि का भेद तथा द्रव्य व गुणकी विलक्षणता ही जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टिको सिद्ध कर रही है। जो चेष्टा एकके लिये पुण्य है वह दूसरेके लिये पाप और जो एकके लिये पाप है वह दूसरेके लिये पुण्य सिद्ध हो जाती है । कोई धनमे सुख ढूँढ रहा है तो कोई पुत्र-त्रीमें, कोई राज्यमें सुख ढूँढ रहा है तो कोई त्यागमें । इस प्रकार कोई एक वस्तु सबके लिये सुखरूप व दुःख रूप प्रमाणित नहीं होती। कहावत है, किसीको बैंगन भेपज है और किसीको कुपथ्य ! अजी सृष्टिका और तो कोई निमित्त है ही नहीं, केवल अपने-अपने कर्म-संस्कार ही भोगके लिये स्थूल आकार धारकर सृष्टिके रूपमें प्रकट होते हैं तथा कोंके अनुसार हीप्रकृति और प्रकृति के अनुसार ही कर्म होते हैं । इस प्रकार जब कि जीव-जीवकी प्रकृति भिन्न-भिन्न है और कर्म भिन्न-भिन्न हैं तब सृष्टिकी एकता कैसे सम्भव हो सकती है ? (६२) एक ही स्त्री पतिके लिये पत्नीरूपसे, पुत्र के लिये मातारूपसे; माताके लिये पुत्रीरूपसे, भाईके लिये भगिनीरूपसे, श्वसुर' के लिये पुत्रवधूरूपसे ग्रहण होती है। एक ही पुरुष पत्नी के लिये
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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