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________________ श्रामविलास 1 [१६० वि० खण्ड शब्दो व रसोंको माधुर्य और स्पशोंको कोमल आप ही बनाता है। रेलोको सरसर, जहाजोंको झर-झर और तारोको फर-फर आप ही उड़ाता है। बुल्बुलोंमें चहचहाट,सिंहोंमें दहाड़, हाथियो में चिंहाड़ देने-दिलानेवाला भी यह आप ही है। इस प्रकार अपनी दृष्टिमानसे सवको सब कुछ लुटा देनेवाला तो यह आप ही है, परन्तु अपने अज्ञान करके आप ही अपनी दृष्टिपर मोहित हो गया। शोक । महाशोक !! तेरी ही तेग तुझे दे गई चिरका कातिल । हो गया तू अपनी ही आपदा पे बिस्मिल ।। आया तो था इन सब रूपोंमें 'सोऽहं' 'सोऽह' का गीत गाने, परन्तु अज्ञानके नशेमें अपने आपको भूल 'कोऽहं 'कोऽहं का स्यापा करने लग पड़ा। जो कुछ देखता है वह सब श्राप ही बना है, परन्तु उस सब दृश्यको अपनेसे भिन्न जान विस्मयको प्राप्त होता है। आइना मुनाविले रुख जोरखा, मट बोल उठा यूँ अक्स उसका । क्यों देखके हैरान यार हुआ ' तुम और नहीं हम और नहीं । ___इस प्रकार जब अपने जाग्रत् व स्वपके स्यापेसे थक पड़ता है, तव अपने निजालय सुपुप्तिमे आप ही अपनी सब दृष्टियो व दृश्योंको लयकर अपने-श्रापमें विश्राम करता है। यही प्रकृतिकी साम्यावस्था है जिससे विषमरूप त्रिगुणमय संसार निकल पड़ता है । यही मुलाज्ञान है, यही कारण-शरीर है, जिससे स्थूलसूक्ष्म प्रपञ्चकी उत्पत्ति होती है। वास्तवमे तो यह प्राज्ञ चेतनस्वरूप साक्षी ही है, परन्तु अविद्यमान अवियाके सम्बन्ध करके साक्ष्यरूप परिच्छिन्न-अहङ्कारमें श्राप ही आत्मबुद्धि करने लगा * दर्पण। । सम्मुख । मुंह। प्रतिबिन्न । - - -
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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