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________________ १८६] [ साधारण धर्म ... (५४) उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हुआ कि अनुभवसे संस्कार और संस्कारसे अनुभवकी सत्यताका प्रवाह अज्ञान करके चल पड़ता है और इस सत्यबुद्धिले कर्ता-भोक्तापन तथा कर्ता-भोक्तापनसे सत्यबुद्धि परस्पर दृढ़ होती चली जाती है। इस प्रकार अनहुए कर्तृत्वाभिमान करके इस मिथ्या प्रवाहमे पड़ा हुआ यह जीव तृणके समान भटकता फिरता है, कहीं विनाम नहीं पाता। इस स्थलपर फिर स्वाभाविक ही यह प्रश्न होता है कि मिथ्यामें सत्यबुद्धि हुई तो क्योंकर ? और आप ही अपने गलेमें यह बन्धन डाला गया तो क्योंकर ? इसका रहस्य यह है कि मायाके राज्य में द्रष्टा-जीव (अविद्या विशिष्ट चेतन) ही दृश्यरूप परिणामको प्राप्त होता है, जैसे मृत्तिका ही घटादि परिणामको प्राप्त होती है। आप ही देखनेवाला होता है और आप ही देखे जानेवाला, श्राप ही ज्ञाता होता है और आप ही ज्ञेय । जैसे रज्जुमेअविद्यावृत्ति पाप ही सर्पाकार और श्राप ही ज्ञानाकार परिणामको प्राप्त होती है, अथवा जैसे स्वप्नमें यह जीव आप हो जानाकार व विषयाकार रूपको धारण करता है, अथवा जैसे दर्पणमें वृत्ति श्राप ही मुखाकार व ज्ञानाकार होती है। ठीक, इसी प्रकार यह द्रष्टा-जीव ही जाप्रतमें ज्ञानाकार व विषयाकार परिणामको प्राप्त होता है। अर्थात् यह 'प्राज्ञ' जीव ही 'विश्व' रूपमे परिणत होता है और अपनी दृष्टिमानसे अन्तःकरणको प्रमाता और इन्द्रियों को प्रमाणता का प्रमाणपत्र देता है। सूर्यको प्रकाश, चन्द्रमाको शीतलता, अग्निको उष्णता और जलको द्रवता प्रदान करता है । आकाशमें शून्यता, वायुमें स्पन्दता, पृथ्वी व पहाड़ोमें जड़ता सिद्ध करनेवाला यह श्राप ही है । रूपोंको सौन्दर्य, फूलोंको सुगन्ध, • जाता है, अपने पोंसे श्राप ही पोरीको पकड़ लेता है और जानता है कि मुझे किसीने पकड़ लिया है। इतनेमें चिड़ीमार आकर उसको पकड़ ही लेता है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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