SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६१] [ साधारण धर्म और इसको सत्य जानने लगा। चूंकि आप ही 'अहं' से 'त्वं रूप दृश्यमें परिणत होकर आया है, इसलिये कारणरूप परिच्छिन्नअहमें सत्यबुद्धि होनेसे कार्यरूप दृश्यको भी सत्य मानने लगा। दृश्यमें सत्यता कहीं बाहरसे नहीं आई, अपने परिणाम करके दृश्यको सत्यता प्रदान करनेवाला यह श्राप ही है और जब मनोनाश, वासनाक्षय व तत्त्व-विचारद्वारा कल्पित-साक्ष्यरूप परिच्छिन्न-अहंसे निकलकर अपने साक्षी-स्वरूपमे झंडे जमा देवे तव न अहं रहे न त्वं, न पा रहे न दृश्य । (५५) अब हम इस सिद्वान्तपर आये हैं कि 'जो कुछ तू देखता है वह तू ही है । भगवान् वसिष्ठ हमारे इस सिद्धान्तकी सत्यतामें मुक्तकण्ठसे अपनी साक्षी देते हैं और अपने ग्रन्थ योगवासिष्ठमें स्थान-स्थानपर पुकारकर कहते हैं :___ "हे राम ! पृथ्वीके परमाणु असंख्य हैं। उन परमाणुवोकी संख्या चाहे कोई कर भी लेवे, परन्तु सृष्टियोकी संख्या करनेमें कोई समर्थ नहीं । जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है, नितने जीव है उतनी ही सृष्टियाँ हैं। अनन्त-चेतनका ऐसा कोई अणु नहीं जहाँ सृष्टि न हो । जैसे जहॉ जल है वहाँ तरङ्ग भी है, तरङ्गायमान होना जलका स्वभाव है, तैसे ही चेतनके आश्रय सृष्टिरूप तरंगे स्वाभाविक फुरती है। परन्तु जैसे जलसे भिन्न तरङ्गका और कोई रूप नहीं है, अपनी फुरना ही भ्रम करके तरङ्गरूप हो भासती है, तैसे ही आत्मासे भिन्न सृष्टिका और कोई रूप नहीं है । अपनी फुरना ही अज्ञान करके संसाररूप हो भासती है, वास्तवमे सृष्टिरूप संसार कुछ उपजा नहीं ।" (५६) वाचस्पति-भित्र भी हमारे इसी सिद्धान्तकी साक्षी देते हैं। उनका मत है कि जितने जीव है उतने ही ब्रह्माण्ड हैं 'और उतने ही ईश्वर हैं। आशय यह है कि ब्रह्माण्ड-रचना जीव
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy