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________________ १५३] [साधारण धर्म मूलमें जबकि देश व कालरूप विकार ही एकमात्र हेतु है, फिर उन्हीं देश-कातको नित्य कहना किसी प्रकार भी अनुभवानुसारी नहीं देश व काल स्वयं निर्षिफार रहकर प्रपञ्चमे विकार उत्पन्न नहीं कर सकते, बल्कि प्राप विकारी होकर ही प्रपञ्चमे विकार उन्पन्न करते है। जो देश कालरूप व्यक्ति पूर्व क्षगगे है वही उत्तर चरणम नहीं, इसलिये देश व कालको व्यक्तिरूपसे नित्य कहना तो हास्यजनक ही होगा। (E)न्यायमतमें देश कातको सर्व कार्यप वस्तुओकी उत्पनिमे कारणरूप साधारण-सामग्री के अन्तर्गतमाना गया है। अर्थात् देश-काल सर्व कार्यों के प्रति कारण है, ऐसा उनका सत है, सो यह भी अनुभवनिरुद्ध है। क्योकि कारणको कार्यसे पूर्व स्थिति को ही मान्य है, अर्थात कारण कार्यले पूर्व विद्यमान रहना चाहिये, ऐसा सवका मत है । परन्तु उपयुक्त विचारले कोई भी देश व कालम्प व्यक्ति काचिन अपने कार्यसे पूर्व थिन पाये नहीं जाते । बल्कि जिस नपने कार्यकी उत्पत्ति होती है, उसी अव्यवहित-क्षणमे देश व कालरूप व्यक्ति भी अपने कार्यके साथ-साथ नगीन ही उत्पन्न होते हैं। इसलिये उस समकालीन देश तथा कालरूप व्यक्तिको अपने कार्यके प्रति कारणता सिद्ध नहीं हो सकती। यदि पूर्व-तरावर्ती देश-कालरूप व्यक्तिको अपने कायके प्रति कारणता मानें, तो कार्योत्पत्ति-कालसे वह अविद्यमान है,और नष्ट हो चुकी है। यदि नष्ट देश-कालरूप व्यक्तिले कार्यकी उत्पत्ति मानी जाय तो नष्ट कुलाल व चनासे भी कार्यकी सिद्धि होनी चाहिये और यह सबके अनुभवविरुद्ध है। (१०) यदि ऐसा कहा जाय कि देश व कालरूप जाति नित्य है, उस देरात्य वं कालत्व-जातिरो, कार्योत्पत्ति सम्भव है और उस जातिमें कारयता माननी चाहिये, तो यह विचार भी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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