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________________ द्वि० सण्ड आत्मविलास] [१३८ श्रद्धाभाव ऐसा प्रज्वलित हुआ कि अपना आपा खोया गया, सद्गुरुकी वाणी ही अपनी वाणी और उनके नेत्र ही अपने नेत्र हो गये। इस प्रकार भगवानके इन वचनोके अनुसार तीनो सामग्री एकत्रित हो चुकी है : श्रद्धावॉल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्या परांशान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥ (गी. अ ४लो ३६) अर्थ:-श्रद्धा, तत्परता और जितेन्द्रियता तीनोके मिलनेपर ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है और अधिकारी ज्ञान प्राप्त करके तत्काल परां-शान्तिको पा जाता है। इन्दव छन्द मौज करी गुरुदेव दयाकरि, शब्द सुनाय कह्यो हरि नेरो। ज्यों रविके प्रकटे निशि जात सु, दूर कियो भ्रम भान अन्धेरो॥ कायिक वाचिक मानस हूँ करि, है गुरुदेवहि बन्दन मेरो। सुन्दर दास कहे कर जोरिजु, दादू दयालको हू नित चेरो ।।१।। न्यू कपड़ा दरजी गहि व्योंतत, काठहिं को बढई कसियान । कञ्चनको ज्यू सुनार कसै पुनि, लोहको घाट लुहार हि जाने ।। पाहनको कसि लेत सिलावट, पात्र कुम्हारके हाथ निपाने । तैसेहि शिष्य कसै गुरुदेवजु, सुन्दर दास तवै मन माने ) पूरण ब्रह्म बताय दियो जिन, एक अखण्डित व्यापक सारे । राग रु द्वेप करें अब कौनसु, जो अहै मूल वही सब डारे॥ संशय शोक मिटयो मनको सव, तत्त्व-विचार कहो निरधार। सुन्दर शुद्ध कियो मल घोगजु, है गुरुको उर ध्यान हमारे ||शा थी, उन सबको जान-कुन्हाधीपे काटकर मैदान साफ कर दिया। अर्थात् 'सर्व ब्रह्म हाट उत्पन हो गई। यह सब कार्य जिन सद्गुरकासे हुआ उन परे में परिहासे गाता हूँ।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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