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________________ १३७] [साधारण धर्म थे घाटी हरिनामकी जी, चढ़ सकै नहि कोय । चेढ़सी हरिका सूरमा जी, जाके धड़पर सीस न होय ! (टर) कवीरा मारा मान गढ़ जी, लूटे पाँचो खान । ज्ञान कुल्हाड़ी हद कर बाही, काट किया चौगान ||शा (टेर) भाव करके समान उद्धकर 'ब्रह्माहारिम' रूपी रंग चढ़ गया। यह सब मलनिवारणरूप व्यवहार अचल कूटस्थाप शिलाके आधारसे ही हो सकता है । यहाँ अधिष्ठानरूप शिला मेरे सद्गुरु हैं, जिन्होंने अपने अधिष्ठानस्वल्पसे आप ज्यूके त्ये रहकर सब अहंता-पप्रतापी मलको वो दिया है। उन सगुल्सर मैं वारी जाता हूं, बलिहारी जाता है। (४) हरि नाम, अर्थात् निगण-ब्रह्मका स्वत्य एक घाटीके तुल्य है, अर्थात् अगम्य है। इस ब्रह्मस्वरूपमें प्रारूड होना दुस्तर है, इसमें कोई पुरुष जो अपनी अहन्ताको बनाये हुए है, आरुढ नहीं हो सकता। इस्में वह हरि का सूरमा अर्थात् वह तीव्रतर वैराग्यवान् ही पालइ हो सकता है, जिसने अपने सिरको वडसे जुदा कर दिया हो । अर्थात् प्रथप जिसने सर्व संसार सम्बन्धी स्वायोंकी बलि देकर फिर शरीरसम्बन्धी प्रासविन व ममताको मम कर शरीरसम्बन्धी अन्ता भी भरम कर दी हो, अर्थात् जिसने अपने आपको ज्ञानद्वारा देहादिसे असा कर लिया हो। ऐसे मेरे सद्गुरु हैं जिन्होंने उस घाटीमें प्रवेश किया है, उनपर मै बलिहारी जाता हूं। (५) 'मान' अर्थात् सूक्ष्म अहंकार ही संसारकी मूल है, वही राजा है उसीसे सर्व विकार उत्पन होते हैं और वह अति दुर्जय है जो गड वॉचकर बैठा है । कबीरजी कहते हैं कि मैंने उसका गढ़ अर्थात् देहाभिमान तोडकर उसको मार दिया और उसके पाँच सान अर्थात् अमीर-मरा (१) काम, (२) क्रोध, (३) लोभ, (४) मोह और (५) अहंकार थे, उनको मैंने लूटे लिया। क्या तो वे पॉवों जीवके लुटेरे थे, परन्तु मैने तो उनको ही लूट लिया और जानरूपी कुल्हाड़ी ऐसी बेहद बताई कि इन सर्वका त्रिकालाभाव सिद्ध हो गया । इस प्रकार जितनी भी कुछ विषमतांपो कॉटेदार मोड़ियाँ
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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