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________________ ७२] [आत्मविलास निवृत्ति सिद्ध होती है। जिसके हृदयमें सत्त्वगुण भरपूर है और जो गीता अ. १८ श्लोक ५१, ५२, ५३ के अनुसार मन-इन्द्रियोंको जीतकर वैराग्यपरायण हुआ है, ऐसे वैराग्यपरायण अधिकारीके लिये पैराग्य क्या नियत-कर्म नहीं, अनियत कर्म है। परन्तु तिलक महोदय तो केवल प्रवृत्तिरूप कर्मों को ही नियत-कर्म मानते हैं, निवृत्तिको न कर्म ही मानते हैं और न 'नियत-क्रर्म' । जिनके दिमागमें रजोगुणकी प्रवलवाके कारण एकमात्र प्रवृत्ति ही उस गई है, उन एकदेशीय दृष्टिवालोंको कौन समझाये परन्तु व्यापक भगवानका उपदेश ऐसा एकदशी नहीं हो सकता, वह व्यापक है और समीके लिये श्रेयपथप्रदर्शक है । कर्मकी व्याख्याके अनुसार प्रत्येक प्रवृत्ति प प्रत्येक निवृत्ति भावोत्पादक होनेसे 'कर्म' है। जबकि 'नियत-कर्म' की व्याख्या इस रूपसे व्यापक मानी जाय, तब इन श्लोकोंसे तिलक-मतका कोई अह्न प्रमाणित नहीं होता। (१२) एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ।। (अ. ४. १५) अर्थः-ऐसा जानकर पूर्व मुमुक्षुबोंद्वारा भी कर्म किया गया है, इस लिये तू भी पूर्वजोंद्वारा सदासे किये हुए कर्मको ही कर। - इस श्लोकमें भगवान्ने मुमुनुजनोंके लिये कर्मकी प्राचीन शैलीको वतलाया है, वेदान्तका इससे कोई विरोध नहीं है। मुमुक्षुके लिये वेदान्त कर्मका निषेध नहीं करता, बल्कि अन्तः करणकी शुद्धिके लिये कर्मकी आवश्यकता निरूपण करता है और साथ ही यह भी कहता है कि अन्तःकरणरूपी क्षेत्र जब साफ हो चुका तब इसमें ज्ञानरूपी बीज बोनेकी जरूरत है। क्षेत्र साफ करते रहने के लिये ही नहीं है बल्कि बीज बोकर फल पैदा
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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