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________________ ७३] [ मधिारण धर्म करनेके लिये है। इस प्रकार मुमुक्षुके लिये इम श्लोकमें कर्म की आवश्यकता कथन की गई, ज्ञानीके लिये कर्मका बन्धन नहीं किया गया। 'कर्म' प्रकृतिके राज्यमें है और मुमुतु भी अभी प्रकृति के राज्यमें ही है, प्रकृतिराज्यसे बाहर नहीं निकला। इसलिये उसपर अधिकारानुसार प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति कर्तव्य है। परन्तु ज्ञानी जो प्रकृतिराज्यसे केसरीसिंहके समान पिञ्जरा तोड़कर निकल गया, उसपर कोई कर्तव्य कैसे लागू हो सकता है ?. उस ब्रह्म-कर्म समाधिवाले के लिये (ब्रह्मकर्मसमाधिना अ.' ४-२४) तो सव कर्म अकर्म ही है, अर्थात् ब्रह्मरूप ही हैं। फिर उस ऐसे अभेदपिवालेपर विधि कैसी ? विधि तो भेदमे ही होती है। . . . . . . (१३-१४) त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः । 'कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ।।. : ... . निराशीयंतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । 30 • शारीर केवलं कर्म 'कुर्वन्नाप्नोति किल्विपम् ॥ + अर्थः 'कर्मपलको त्यागकर जो पुरुष कर्तृत्वाभिमानसे रहित सांसारिक आश्रयसे छूटा हुआ नित्य हम है, वह कर्ममें प्रवृत्त रहता हुंआ भी कुछ नहीं करता। जो पुरुप आशारहित है, चित्त और शरीरको जीते हुये है तथा जिसने सभी भोगोंकी सामग्री त्याग दी है, ऐसा पुरुष केवल शरीरसम्बन्धी कर्म करता' हुधा पापको प्राप्त नहीं होता। प्रथम श्लोकमें कहा गया है कि 'जो पुरुप सर्व आश्रयरहित नित्व ही अपने स्वरूपमें तृप्त और कर्तापनसे छूटा हुशा है, वह 'कर्मफलको त्यागकर कर्ममें प्रवृत्त हुआ भी कुछ नहीं करता। इमी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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